गिरधारी लाल जी चुनाव में शिकस्त खायी है। तब से आएदिन आयोजनों में मुख्य अतिथि
या विशिष्ट अतिथि के रूम में शिरकत कर रहे हैं। वे अतिथि बनाए नहीं जाते। खुद बन
जाते है। तिकड़म-अकड़म लगाकर मंचासीन हो जाते है। बाकी अतिथिगण तो बीच में ही चलते
बनते है। लेकिन गिरधारी लाल जी समापन तक डटे रहते है। कुरसी पर टिके रहते है। उन्हें
कुरसी से अगाध लगाव है। उसके लिए वे किसी भी नीति को गति दे सकते है। प्रणनीति
छोड़कर रणनीति अपना सकते है। दल से बेदखल हो सकते है। सत्तारूढ़ दल से हाथ मिला
सकते है।
गिरधारी लाल जी गत चार वर्ष में चार सौ से ज्यादा आयोजनों का व्यंजन खा चुके
है। डकार तक नहीं ली। ले कैसे? लेने के लिए फुरसत ही नहीं है। आयोजन में लाइजन बनाने में मशगूल रहते है।
चुनाव में लाइजन बहुत मायने रखता है। आचारसंहिता लगने से लेकर प्रचार के आखिरी
दिवस तक। मतदान से लेकर परिणाम दिवस तक। लाइजन ही काम करता है। फिर लाइजन से तो वह
अमूल्य वोट मिल जाता है,जो किसी ओर को जा रहा होता है। डकार लेने के लिए तो आयोजक
व अवाम हैं ना। डकार ले सकते हैं। लेते भी होंगे।
गिरधारी लाल जी छोटे-मोटे प्रोग्रामों में तो बिना आमत्रंण के चले जाते हैं।
उदर पूर्ति परिपूर्ण करके आते है। कुआं पूजन,ब्याह-शादी,सवामणी,जागरण,आदि-इत्यादि
में तो जाना भूलकर भी नहीं भूलते है। उनका मानना है कि ऐसे अवसरों पर आने-जाने से
भी अमूल्य वोट मिलता है। और क्षेत्र में गत चार वर्ष में जो भी स्वर्ग सिधारे
हैं। उनके घर गिरधारी लाल जी अवश्य पधारे है। मृत्यु के घर जाकर श्रद्धाजंलि
अर्पित करने से अमूल्य वोट बिना मूल्य के ही मिल जाता है। ऐसा उनका मानना है।
माननीय बनने के लिए मानना पड़ता है। मान ना मान मैं तेरा मेहमान भी बनना पड़ता है।
चरण स्पर्श का अभिनय करना पड़ता है। भले ही चरण स्पर्श हो या ना हो। हाथ को चरण
सीमा तक ले जाकर माथे के लगाना पड़ता है। एक अमूल्य वोट के लिए,ना जाने क्या-क्या
ढोंग-पाखंड करना पड़ता है। झूकना पड़ता। सुनना पड़ता है। वोटर की मनोभावना के
अनुकूल चलना पड़ता है।
गिरधारी लाल जी इतने उदात्त है। उनके बिना बुलाए चले जाने से तो चलता
प्रोग्राम परिवर्तित हो जाता है। घंटे आध घंटे के लिए अवरूद्ध हो जाता है। बिन
बुलाए गिरधारी लाल ‘नेताजी’ पधारते है तो मेजबान को उनकी आवगभगत में पलक पॉंवड़े
बिछाना पड़ता है। दरी पट्टी थोड़ी है कि झाड़ी और बिछा दी। पलक पांवड़े है,बिछाने
में टाइम तो लगता है। घंटा या आधा घंटा गवाना पड़ता है। झूठ-मूठ कहना भी पड़ता है।
‘ये तो हमारा सौभाग्य है। बिना बुलाए आप हमारे यहां पधारे। आपके आगमन से
कार्यक्रम की शोभा बढ़ गई।’ शोभा तो बढ़ी ना बढ़ी हो। लेकिन बजट अवश्य बढ़ जाता
है। क्योंकि उनकी खातिरदारी न्यारी जो होती है।
गिरधारी लाल जी गत चुनाव में नया चेहरा था। गैर क्षेत्रीय था। वोटर ने पहचाना
नहीं। पार्टी के नाम पर मत मिला। वह भी अल्पमत मिला। अब वे बहुमत के लिए बहुत
दौड़-धूप कर रहे है। हालांकि वे ना दौड़ते और ना ही धूप में निकलते है। आहिस्ता–आहिस्ता
चलते हुए छांव-छांव में जान-पहचान बढ़ा रहे हैं। पुराना चेहरा बनने की पराकाष्ठा
पर है। क्योंकि गत चार वर्ष में इतने चेहरों से मुखातिब हो चुके हैं। नये चेहरे
को भी पुराना बता देते हैं। नया चेहरा पुराना सुनकर प्रमुदित हो जाता है। और कहता
फिरता है,‘नेताजी तो मुझे अच्छी तरह से जानते हैं।’ इस वहम में अपना अमूल्य वोट
का दान नेताजी के नाम करने की सोच रखा है।
गिरधारी लाल जी आयोजनों में आयोजन से संबंधित विचार तो सोच-विचार के वक्त भी
नहीं सोचते। बोलने का तो सवाल नहीं। वे तो अपने लच्छेदार भाषण से इस मानिंद
आकर्षित करने में रहते है कि अमूल्य वोट खुद-ब-खुद खींचा चला आए। और भारी बहुमत
से विजय बना जाए। गिरधारी लाल जी का मानना है कि अमूल्य वोट सुविचार प्रकट करने
से थोड़ी आता है। वह तो भाषणबाजी के प्रंपच से फंसता हैं। लोक लुभावन घोषणाओं की
मुनादी से बहकता है। सुनहरे स्वप्न दिखाने पर मतदान करता है। फिर आयोजन से
संबंधित विचार प्रकट करने के लिए तो खुद आयोजक होते हैं ना। वे ही विचारों का खूब
आचार डाल देते हैं।
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