देखिए चुनावी मौसम है। वादों की बरसात तो होनी है। वादों के मेंढक टर्राने लगे हैं। नेता रूपी बादल वोटर को भिगोने के लिए गरजने लग गए हैं। वोटर वादों की बरसात में नहाने के बजाय यह देखना चाहता है कि वादों की बारिश हल्की बूंदाबांदी होकर ही थम जाएगी या मूसलाधार बरसेगी। एक बड़े राजनीतिक दल के मुखिया ने तो बीस फ़ीसदी गरीबों के लिए हर माह बारह हजार के वादे की बारिश कर दी है। लेकिन एक सर्वे के मुताबिक अबकी बार जिन दस चुनावी मुद्दों की बारिश होनी है,उनमें बेरोजगारी सबसे प्रमुख है। जो कि गत आमचुनाव में भी दस मुद्दों में प्रथम पायदान पर थी।
सच पूछिए तो रोजगार की बरसात की प्रतीक्षा में बेरोजगारी प्यासी मर रही है। प्यास के कारण गला सूखता जा रहा है। अगर समय रहते हुए बेरोजगारी की प्यास नहीं बुझाई गई,तो रोजगार के पानी की तलाश में भटकती हुई दम तोड़ देगी। लेकिन नेता चुनावी सीजन में तो आश्वासन का जल पिलाकर मतदान तक तो बचा लेते हैं। क्योंकि तब तक इन्हें वोट जो लेना रहता है। मगर मतगणना के बाद से ही चाहे बेरोजगारी दम तोड़े या किसान आत्महत्या करें, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। विपक्ष सत्ता पक्ष से जवाब मांगता है और सत्तापक्ष चुप्पी साध लेती है। जब विपक्ष सत्ता में आ जाती हैं और सत्ता विपक्ष पक्ष में होती है। तब भी वही प्रक्रिया रहती है। कुछ नहीं बदलता है। अगर कुछ बदलता है तो सिर्फ चेहरे बदलते हैं। यहां तक की कुर्सी भी वही की वहीं रहती है।
वैसे देखा जाए तो राजनीति में सारा खेल ही कुर्सी के लिए रचा जाता है। कुर्सी के लिए गठबंधन की नाव में बैठ जाते हैं, तो गठबंधन की नाव से उतर भी जाते हैं। टिकट कट गया तो दूसरी पार्टी में सम्मिलित होकर उसी के सामने ताल ठोक देते हैं। बेटा बाप की संसदीय सीट पर अपना परचम लहराने के लिए बाप की सीट बदल देता है। बाप अपने बेटे एवं पुत्रवधू के लिए हाईकमान से पैरवी करता है। चायवाला चौकीदार बन जाता है। हाथी साइकिल पर सवार हो जाता है।
नेता अपनी पत्नी,भाई-बहन,बेटा-बहू,भती जा-भतीजी को राजनीति के मैदान में उतारकर अपनी वंशवाद की अमरबेल को सदैव हरी-भरी रखना चाहते हैं। राजनीति में वंशवाद की अमरबेल ऐसी बेल होती है,जो कि चुनाव के पेड़ पर ही फलती फूलती है और चुनाव के पेड़ को मतदाता ईवीएम की बाल्टी में वोट का पानी डालकर भरता है।
हमारे नेताजी की वंशवाद की बेल मुरझाई गई थी। सूखकर गिर न जाए। इस चिंता में वे खुद सूखते जा रहे थे। मगर जैसे ही चुनावी मौसम ने दस्तक दी मुरझाई बेल फूटने लगी। जिसे देखकर बुझ चुका उम्मीद का दिया जल उठा। कल्पना की कोंपल टहनियों का रूप लेने के लिए मचलने लगी। अतीत के झरोखे की बंद पड़ी खिड़कियों को खोलकर उनमें से अपना राजनीतिक उज्ज्वल भविष्य देखने लगे। वंशवाद की बेल को सींचने वाले सोचने लगे,अगर पार्टी ने टिकट का खाद दे दिया तो बेल पूर्व की भाँति फिर से हरी-भरी हो जाएगी। एक बार बेल हरीतिमा का रूप ले ली तो फिर उसकी इस तरह से सार संभाल करते रहेंगे कि भविष्य में फिर कभी नहीं मुरझा पाएगी।
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