गरमी ने चुपके से
आकर सीलिंग फैन का स्विच ऑन कर दिया है। पंखे पर जमी हुई धूल उड़कर नेताजी
की गाड़ी के पीछे उड़ रही धूल में जा मिली। चुनावी धूल
में मिलना या तो धूल चटाना है या फिर जीत के फूल खिलाना है।
चुनावी
दौर में नेताओं की गाड़ी के पीछे उड़ती धूल बहुत मायने रखती है। उड़ती हुई धूल को
देखकर एग्जिट पोल वाले नतीजे बता देते हैं। फलाना नेता आगे चल रहा है या ढिकाना। मीडिया
वाले आकलन लगा लेते हैं और समाचार प्रकाशित कर देते हैं। ठुमका सिंह और झुमका सिंह
के बीच ही कांटे की टक्कर रहेगी। झोपड़ी में बैठा वोटर दूर से ही पता लगा लेता है कि फलाने नेताजी गांव में पधार रहे हैं। डिमका
नेताजी वोट मांगने जा रहे हैं।
सच पूछिए,तो उड़ती
हुई धूल से नेताजी ही नहीं,वोटर तक की पहचान हो जाती है। बस पहचानने वाला चाहिए।
जो मतदाता धूल उड़ाती गाड़ी को आते देखते ही एक तरफ साइड हो लेता है,संभवत: वह नेताजी का वोटर नहीं होता है। और जो गाड़ी के एकदम सामने आ जाने पर भी
साइड में नहीं होता है, तो समझिए वह नेताजी का पक्का वोटर है।
गाड़ी
के पीछे दौड़ते बच्चों के चेहरों पर जमी धूल देखकर,बच्चों की मां समझ जाती है कि बच्चे लुका-छिपी खेलने नहीं,बल्कि नेताजी के प्रचार के परचे लूटने गए थे। लुटे हुए पर्चे व बिल्लों को देखकर मां-बाप
बच्चों को डांटते नहीं है,बल्कि पूछते हैं कि आज गाँव की
चौपाल में कौन नेता जी आए थे और क्या बोलकर गए हैं। भले ही बच्चों को मतदान करने
का अधिकार नहीं है,मगर वे यह अवश्य जानते हैं कि वोट की कीमत
क्या होती है। इसलिए कई बच्चे तो वोट डालने से पहले अपने घरवालों को यह बात अच्छी तरह से समझाकर भेजते हैं कि ईवीएम का बटन किस तरह से दबाना है।
धूल
उड़ाती हुई गाड़ियों का काफिला जब रास्ते से गुजरता है,तो उस रास्ते पर विकास की गाड़ी चढ़ी भी है या नहीं,यह
बिना पूछताछ किए ही मालूम हो जाता है। जब गाड़ी के टायर गड्ढों को बचाने के बावजूद गड्ढों में पड़ते हैं,तब गाड़ी ही बता देती है इस रास्ते पर तो विकास की गाड़ी क्या,विकास की
साइकिल भी नहीं चली है।
लग्जरी
गाड़ी में बैठे नेताजी जब अपना शीशा उतारकर पीछे देखते हैं,तो उड़ते
धूल के गुब्बारों में भले ही काफिले की गाड़ियां न दिखे,लेकिन कार्यकर्ताओं का जोश साफ-साफ दिखाई देता है। उनके द्वारा लगाए जा रहे,जिंदाबाद के नारे उन्हें लगातार आश्वस्त करते रहते हैं।
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