29 Apr 2016

सरकारी हैंडपम्प की व्यथ - दैनिक हरिभूमि

29.04.2016 हर‍िभूमि में. 
मैं वहीं हैंडपम्प हूं। जिसके पनघट पर जमघट लग रहता था। पनिहारी 'मन की बात करती थी। मोहल्ले के कच्चे चिट़ठे यहीं खोलते थे। सुख-दुख की वार्तालाप होती थी। तू-तू,मैं-मैं होती थी। पानी भरने पर। कतार पर। नम्बर पर। मैं अपना ठण्ड़ा पेयजल पिलाकर,इनको शांत कर देता था। मेरे समीप मेरा जल गर्त भरा रहता था। जिसमें पशु-पक्षी अपनी प्यास बूझाते थे। मेरे प्रादुर्भाव पर ग्राममुखिया ने गुड़ बांटा था। पूरे मोहल्ले में मुनादी हुई थी। सरकारी हैंडपम्प का जल पेयजल है। लोग प्रफुल्लित थे। मैंने कभी भी मोहल्लेवासियों को धोखा न दिया। सदैव उनकी सेवा में तत्पर रहा। यह भी मेरा पूरा खयाल रखते थे। समय-समय पर मेरी सर्विस-वर्विस करवाते रहते थे। मेरा और मोहल्लेवासियों का अटूट संबंध था। जब से मेरी जलपूर्ति बंद हुई है। तब से संबंध टूट गया। अब तो मोहल्लेवासी मेरी ओर झाकते भी नहीं। इनसान कित्ता खुदगर्ज है,जब मैं इनकी जलपूर्ति करता था,तो मेरा गुणगान करते थे। अब कोई मेरा हाल भी नहीं पहुंचने आता। धरा में जल ही नहीं है,तो मैं कहां से खींचकर लाओं?जल रसातल में चल गया है। वहां तक मेरी पहुंच असंभव है। मैं दलाल तो हूं नहीं,जो जुगाड़ करके पहुंच जाओं। रिश्वत देकर जल ले आऊं। लेन-देन का कार्य तो इनसान करता है। वैसे भी भारतीय मानव जुगाड़ करने में अग्रणी हैं। इन्होंने तो जल बचाने का ही जुगाड़ नहीं किया। जब तो चार-चार बाल्टी उड़ेलते थे। नहाने-धोने में। पशुओं को लहलाने में। वाहन साफ करने में। अब बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं। सरकार को कोस रहे हैं। जल सरकार की मुट्ठी में थोड़ी है,जो भींच कर बैठी है। देने से नकार कर रही है। सरकार अपील कर सकती है। जल बचाने की। जलमंत्री को भेज सकती है। सूखाग्रस्त इलाकों में। जायजा लेने। सेल्फी लेने। एक पत्रकार बंधु इधर से गुजर रहा था। उससे मेरी हालत देखी नहीं गई। इसलिए छाप दिया अखबार में। मैं अखबार में क्या छपा?स्थानीय नेताओं में होड़ मच गई। मुझे दुरूस्त करवाने की। श्रेय लेने की। वोट बटोरने की। इनके भी अखबार में छपने के बाद ही चक्षु खोले। जबकि मैं तो इनके नाक तले ही था। खैर,छोड़ो। नेताओं को मुद्दा चाहिए,सो मिल गया। ग्रामसचिव से बीडीओं तक। ग्राम पंचायत से पंचायत समिति तक। मुझे घसीट ले गए। मुद्दा बनाकर। इनको,जलसंकट में। सूखे में। मेरा मुद्दा क्या मिल गया?अखबारों की कटिंग काट-काट कर सोशल मीडिया पर चस्पा कर रहे हैं। सुर्खियां बटोर रहे हैं। एक सरकारी हैंडपम्प की इज्जत उछाल रहे हैं। दरअसल असर यह हुआ कि जलदाय विभाग का कर्मी आया। मुझे देख बुदबुदाया। जो पहले से दुरूस्त है। उसे क्या दुरूस्त करोंइत्ती दूर से आया हूं। कुछ करके ही जाऊंगा। ओर वह मेरे मेरे कुछ नये अंग लगाकर चला गया। उसे भी  ज्ञात है। मुझे भी ज्ञात है। लोगों को भी ज्ञात है। जल जलस्तर तक नहीं रहा। यह जल बर्बाद करने का नतीजा है। अब तो मुझे मानसून ही दुरूस्त कर सकता है। वहीं मेरे पनघट पर फिर से जमघट लगा सकता है।

26 Apr 2016

फेंककर लपकने की कला- दैनिक ट्रिब्यून

गेंदबाज गेंद फेंकता है। बल्‍लेबोज उस पर शॉट मारता है। फिल्डर उसे कैच पकड़ता है। कैच के लिए उसे लपकना पड़ता है। निगाहें गाड़े रखना पड़ता है। सूर्यदेवता को नमस्कार करना पड़ता है। तब कहीं जाकर गेंद हाथ लगती है। फेंकने वाला तो फेंक कर इतिश्री कर लेता है। फेंकने वाले लपकने वाले की अनुपस्थिति में भी फेंक देते है। बस,उन्हें तो फेंकने से मतलब है। उनका कार्य है,फेंकना। चाहे मैदान में लपकने वाले हो या नहीं। फेंकने वाले हर जगह विराजमान है। फेंकने की भी कई बैराइटी है। नेतागण भाषण फेंकने में महारथी है,तो लोग खाली प्लॉट में कूड़ा-कचरा फेंकने में। क्या है कि फेंकने में न तो मेहनत लगती है?नहीं खर्चा। फेंकना सरल कार्य है। लपकना कठिन। हाल ही में एक शख्स ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर जूता फेंक दिया। हांलाकि जूता उनके समीप से गुजर गया। शख्स गिरफ्तार हो गया। लेकिन जूता तो सुर्खियों में आ गया। अकेले केजरीवाल ही नहीं अपितु और भी कई नेतागण है,जिन पर जूता फेंका गया। फेंकने वाले कहां और कब?और क्या फेंक दे?यह कोई नहीं जानता। यह इल्म होता तो केजरीवाल पहले से ही जूता लपकने वाले तैयार रखते। क्योंकि इस क्षेत्र में लपकने वाले मिल जाते हैं। वैसे तो मिलना मुहाल है। कई फेंकने वाले तो अपने नाम से नहीं। बल्कि फेंकू के नाम से जाने जाते है। लोग उन्हें फेंकू कहकर संबोधित करते हैं। फेंकना इनकी रोजी-रोटी का साधन है। एक तरह से यूं कहे सकते है,फेंकना इनका धंधा है। अगर यह फेंके नहीं तो भूखे मर जाए। धंधा-पानी चौपट हो जाएं। अपना व परिवार का पेट भरने के लिए कुछ-ना-कुछ तो फेंकना पड़ता है। इसलिए कभी जूता,चप्पल तो कभी टमाटर,अंड़े फेंक देते है। इनके पास जो फेंकने लायक होता है,वहीं फेंकते है। वैसे भी व्यक्ति अपनी हैसियत के मुताबिक ही फेंकता है।
इनमें भी कई फेंकने वाले तो फेंकने में फेंकलॉजिस्ट होते हैं। यह फेंकलॉजिस्ट अपनी अर्हता के मुताबिक नहीं फेंकते। यह जूते,चप्पल,टमाटर,अंड़े भी नहीं फेंकते। 
यह तो अपनी जेब भरने के आइडिया फेंकते। लोगों को बेवकूफ कैसे बनाएके हंथकड़े फेंकते है। रिश्वत लेने के नायाब तरीके फेंकते है। मुर्गा या मुर्गी को फंसाने का जाल फेंकते हैं। कैसे भी एक बार मुर्गा या मुर्गी फंस जाए?इसकी माल जपते रहते हैं। यह यदाकदा नहीं फेंकते। नित्य फेंकते है। कहते है ना सौ पत्थर फेंकने पर एक पत्थर तो सटीक लगता ही है। शायद इसीलिए फेंकने वाले फेंकते होंगे। फेंकने वाला यह नहीं देखता है,जिसके समक्ष मैं फेंक रहा हूं। वह लपकने में कामयाब है या नहीं। उसे लपकना आता है या नहीं। फेंकने वाले मिर्च-मसाला लगाकर फेंकते है। लपकने वाले को लपकने के लिए विवश कर देते है। चाहे वह लपकने में सक्षम हो या नहीं। यह नहीं देखते फेंकने वाले। यह तो राम-नाम जपना और पराया माल अपना की ताक में रहते है। यह अपनी छोली से जित्ता फेंकते है। उसका दुगुना नहीं मिले। तब तक फेंकते रहते है।

22 Apr 2016

वसुधा मां के लाल ही दुश्मन-दैनिक हर‍िभूमि

22 अप्रैल 2016 के  दैनिक हर‍िभूमि

आज विश्व पृथ्वी दिवस है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड़ में पृथ्वी एक है। वसुधा मैया की संतान अनेक है। वसुधा मैया सबका खयाल रखती है। इसकी दृष्टि में पूत-कपूत सब समान है। कृत्रिम प्राकृतिक सबका बोझ उठाती है। विविध सौंदर्य से अभिभूत है। रत्ती भर अभिमान नहीं। करूणा,दया की मूर्त है। शांतप्रिय नैसर्गिक है। लेकिन जब मैया के कपूत अपनी हरकतों से बाज नहीं आते है,तो मैया इन्हें सबक सीखाने के लिए विकराल रूप धारण कर लेती है। तबाही मचा देती है। भूकम्प,बाढ़,सूखा,अकाल,आदि लाकर,समझाने की कोशिश करती है। पर,इन पर जूं तक नहीं रेंगती। हर बार मैया यहीं कहते है-अब भी वक्त है,सुधर जाओं। प्रकृति का विदोहन मत करों। पर्यावरण दूषित मत करों। कमबख्त मानते ही नहीं। वसुधा मां कहती रहती है। यह इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हैं। अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु अंजाम देते रहते हैं। एक मां अपने बेटों का कभी बुरा नहीं चाहती। चाहे वह जन्म देने वाली मां हो। चाहे वसुधा मां हो। उसे अपनी संतान की सदैव फिक्र रहती है। वह अपनी संतान को सदैव प्रफुल्लित देखना चाहती है। संतान ही निकक्मी हो सकती है,मां नहीं। जब संतान निकक्मी हो जाती है,तो मां कान एठती है। प्यार-दुलार से समझाती है। फिर भी नहीं समझे तो,वह अपने तरीके से समझाती है। वसुधा मैया के तरीके से तो हम वाकिफ है ही। किस तरीके से समझाती है।
मां के यह लाल तो इत्ते ऊधमगारी है कि अपने हरकतों से बाज ही नहीं आ रहे। ऊधम यह करते है और जान बेकसूरों को गवानी पड़ती है। इनसे तो अब वसुधा मां भी तंग आ गई। यह पर्यावरण दूषित करने पर तुले है। पहाड़ ध्वस्त कर दिए। नदियों को गंदी कर दी। जल बर्बाद कर रहे है। अपने स्वार्थ की खातिर पता नहीं क्या-क्या कर रहे है?वसुधा मैया ने हमारे लिए क्या नहीं किया?जीने के सभी संसाधन उपलब्ध करवाए है। लेकिन हम असीमित संसाधनों को सीमित करने में लगे है। इसी वजह से वसुधा मैया का ज्येष्ठ पुत्र किसान खामियाजा उठा रहा है। फंदे से लटक रहा है। अपने ज्येष्ठ पुत्रों की इस तरह की मृत्यु से वसुधा मैया भी बेबस है। दुखद है। सही मायनों में धरतीपुत्र ही वसुधा मैया के रखवाले है। इन्हीं मैया की फिक्र है। हम सब कैसे भूल जाते है?जीने का अधिकार वसुधा मैया ने ही दिया है। इसी ने पंचतत्व दिए है।इसकी की गोद में जन्म-मृत्यु है। मानव,पशु-पक्षी,जीव-जन्तु,पेड़-पौधे,कीड़े-मकोड़े,सब इसी वसुधा मां के लाल है। इन सबका काल इनसान बना बैठा है। इसको वसुधा मां की फिक्र ही नहीं। चकाचौंध के भूलभूलैया में उलझा हुआ है। प्रतिस्पर्धा में लगा है। इसके पास फुरसत ही नहीं। वसुधा मैया के लिए। कभी सोचता नहीं मैया के संदर्भ में। हमारा भी कुछ दायित्व तो बनता है। वसुधा मैया की सेवा-सत्कार करने का।अब भी वक्त है वसुधा भैया की शरण में जाने का।अन्यथा विनाश के दिन दूर नहीं।

21 Apr 2016

फेंक देते हैं,फेंकने वाले- सांध्‍य दैनिक 6PM इंदौर

गेंदबाज गेंद फेंकता है। बेटमैंन उस पर शॉट मारता है। फिल्डर उसे कैच पकड़ता है। कैच के लिए उसे लपकना पड़ता है। निगाहें गाड़े रखना पड़ता है। सूर्यदेवता को नमस्कार करना पड़ता है। तब कहीं जाकर गेंद हाथ लगती है। फेंकने वाला तो फेंक कर इतिश्री कर लेता है। फेंकने वाले लपकने वाले की अनुपस्थिति में भी फेंक देते है। बस,उन्हें तो फेंकने से मतलब है। उनका कार्य है,फेंकना। चाहे मैदान में लपकने वाले हो या नहीं। फेंकने वाले हर जगह विराजमान है। फेंकने की भी कई बैराइटी है। नेतागण भाषण फेंकने में महारथी है,तो लोग खाली प्लॉट में कूड़ा-कचरा फेंकने में। क्या है कि फेंकने में न तो मेहनत लगती है?नहीं खर्चा। फेंकना सरल कार्य है। लपकना कठिन। हाल ही में एक शख्स ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर जूता फेंक दिया। हांलाकि जूता उनके समीप से गुजर गया। शख्स गिरफ्तार हो गया। लेकिन जूता तो सुर्खियों में आ गया। अकेले केजरीवाल ही नहीं अपितु और भी कई नेतागण है,जिन पर जूता फेंका गया। फेंकने वाले कहां और कब?और क्या फेंक दे?यह कोई नहीं जानता। यह इल्म होता तो केजरीवाल पहले से ही जूता लपकने वाले तैयार रखते। क्योंकि इस क्षेत्र में लपकने वाले मिल जाते हैं। वैसे तो मिलना मुहाल है। कई फेंकने वाले तो अपने नाम से नहीं। बल्कि फेंकू के नाम से जाने जाते है। लोग उन्हें फेंकू कहकर संबोधित करते हैं। फेंकना इनकी रोजी-रोटी का साधन है। एक तरह से यूं कहे सकते है,फेंकना इनका धंधा है। अगर यह फेंके नहीं तो भूखे मर जाए। धंधा-पानी चौपट हो जाएं। अपना व परिवार का पेट भरने के लिए कुछ-ना-कुछ तो फेंकना पड़ता है। इसलिए कभी जूता,चप्पल तो कभी टमाटर,अंड़े फेंक देते है। इनके पास जो फेंकने लायक होता है,वहीं फेंकते है। वैसे भी व्यक्ति अपनी हैसियत के मुताबिक ही फेंकता है।
इनमें भी कई फेंकने वाले तो फेंकने में फेंकलॉजिस्ट होते हैं। यह फेंकलॉजिस्ट अपनी अर्हता के मुताबिक नहीं फेंकते। यह जूते,चप्पल,टमाटर,अंड़े भी नहीं फेंकते। 
यह तो अपनी जेब भरने के आइडिया फेंकते। लोगों को बेवकूफ कैसे बनाएके हंथकड़े फेंकते है। रिश्वत लेने के नायाब तरीके फेंकते है। मुर्गा या मुर्गी को फंसाने का जाल फेंकते हैं। कैसे भी एक बार मुर्गा या मुर्गी फंस जाए?इसकी माल जपते रहते हैं। यह यदाकदा नहीं फेंकते। नित्य फेंकते है। कहते है ना सौ पत्थर फेंकने पर एक पत्थर तो सटीक लगता ही है। शायद इसीलिए फेंकने वाले फेंकते होंगे। फेंकने वाला यह नहीं देखता है,जिसके समक्ष मैं फेंक रहा हूं। वह लपकने में कामयाब है या नहीं। उसे लपकना आता है या नहीं। फेंकने वाले मिर्च-मसाला लगाकर फेंकते है। लपकने वाले को लपकने के लिए विवश कर देते है। चाहे वह लपकने में सक्षम हो या नहीं। यह नहीं देखते फेंकने वाले। यह तो राम-नाम जपना और पराया माल अपना की ताक में रहते है। यह अपनी छोली से जित्ता फेंकते है। उसका दुगुना नहीं मिले। तब तक फेंकते रहते है।







21.04.2016  के  दैनिक सांध्‍य 6PM NEWS इंदौर में ।

15 Apr 2016

सुबह सवेरे में व्‍यंग्‍य - काले धन को गोरा बनाने की चाहत खींच ले गई पनामा
















जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ता था,तब भूगोल के गुरुजी ने पनामा नहर के बारे बताया था। श्यामपट्ट पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचकर समझाया था। लीक से हटकर मत चलना। लीक पर बने रहना। क्योंकि लीक है,तो ठीक है। उस समय श्याम पट्ट पर खींची आड़ी-तिरछी लीके मस्तिष्क पटल में न बैठी थी। पर,अब लीक का अर्थ समझ में आ रहा है। भला हो पनामा पेपर्स का जिसने स्मरण करवा दिया। वरना मैं तो भूल ही गया था। लीक-विक क्या होती है?इससे मेरी स्मरण शक्ति की परख भी हो गई। मुझे आशंका थी कि मेरी स्मरण शक्ति कमजोर हो गई है।
बताया जा रहा है कि टैक्स बचाने की खातिर नेता,अभिनेता,ज्वैलर,क्रिकेटर,उद्योगपतियों ने पनामा की शरण ली। व्यक्ति जिंदगी में किसी ना किसी की शरण तो लेता ही है। क्या है कि बिना शरण के जिंदगी में सुकून नहीं है। बिना सुकून जिंदगी विरान है। बेचारे करते भी क्या?पैसे रखने के लिए सुरक्षित स्थान तो चाहिए ना। चलने के लिए लीक तो होना। इनको पनामा में सुरक्षा नजर आयी तो अपना पैसा रख दिया। ले लिया पनामा की शरण। क्या है कि काला रंग और कालाधन लोगों के कम पसंद होता हैं। इसीलिए इन्होंने कालेधन को गोरा करने के लिए भेजा होगा।
ताकि जब कभी अपने कालेधन को लाए,तो वह गोरी चमड़ी में नजर आए। किसी को फुसफुसाहट तक नहीं हो। कोई यह नहीं कहे कि गया था काला,आया है गोरा होकर। इसलिए यह लोग चोरी-छिपे पनामा पहुंच गए। कालेधन को लेकर। गोरा कराने की खातिर। कालाधन इनका अपना है। पता नहीं उनके पास ऐसी कौनसी क्रीम या दवा है,जो काले को गोरा कर देती है। एक हम है,जो नित्य गोरे करने वाली क्रीम यूज करते हैं। फिर भी गोरे नहीं हुए। पनामा में कोई ना कोई औषधि तो है ही। तब तो मुल्क की पांच सौ फेहरिस्त हैं। जब से पनामा पेपर्स का मामला उजागर हुआ है।
काग,कोयल,काजल,कोयला ने भी कमर कस ली हैं। यह भी पनामा की ओर जाने को आतुर हैं। यह लीक-वीक से अनभिज्ञ थे। किंतु अब जानना चाहते हैं। लीक पर चलना चाहते हैं। इन का आरोप है कि हमने इनसान के लिए क्या नहीं किया?फिर भी आज तक काले हैं। लीक पर नहीं। हमें भी गोरा होना है। लीक पर चलना है। काग कहता है-मैं सुख-दुख की सूचना देता हूं। मेहमान आने से पूर्व मैं ही सूचित करता हूं। कांव-कांव करके। कोयल कहती है-जिसकी मधुर वाणी है। उसकी उपमा मेरे से करते है। मैं गाती हूं तो लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। काजल कहती है-मैं नैनों की सौंदर्य बढा़ती हूं। कोयला कहता है-मैं तो विभिन्न कार्यों में अहम भूमिका निभाता हूं।
इनसान की खातिर जलकर राख हो जाता हूं। फिर भी हम काले हैं। लीक पर नहीं है। अब हमें भी गोरा होना हैं। जब कालाधन गोरा होने पनामा पहुंच सकता है,तो हम क्यों नहीं?कम से कम एक बार हमें भी तो गोरे होने का अवसर दो। जब हम काले होकर इत्ते कार्य बगैर वेतन-भत्ता लिए कर रहे हैं। गोरे होकर क्या कर सकते हैं?यह तो आप भली भांति जानते हैं। यह सब लिखकर इन्होंने ने सरकार से मांग की है। कालेधन का गोरा करने का प्रशिक्षण आरंभ हुआ था या नहीं। यह तो वे खुद जाने। भेजने वाले जाने। मंगवाने वाले जाने। अब चाहे आधे काले हो,चाहे आधे गोरे हो। पनामा पेपर्स तो लीक हो ही गया।

6 Apr 2016

घर बैठे समाधान की चाहत ला रही आफत - दैनिक सुबह सवेरे

आधुनिकता में घर बैठे समस्या का समाधान काफी लोकप्रिय हो रहा है। सबको घर बैठे बिठाएं समाधान चाहिए। भले खर्चा चाहे दुगना हो जाए। पर समस्या का समाधान घर बैठे होना चाहिए। राजमर्रा की जिंदगी में इंसान विविध समस्याओं से लड़ता है। कभी जीतता है,तो कभी हारता है। इस हार-जीत से छूटकारा पाने के लिए,वह घर बैठे समाधान चाहता है। आज कल घर बैठे समाधान करने वाले भी,जगह-जगह शॉप खोले बैठे हैं। कुछेक टीवी पर छाए हुए हैं। कुछेक अखबार के क्लासीफाइड में अंकित रहते हैं। घर बैठे,पार्ट टाईम,फुलटाईम,एसएमएस करके कमाएं दस से बीस हजार रूपए महीना। बस आपके पास स्माटफोन और लैपटॉप होना चाहिए। इंटरनेट होना चाहिए। बैटरी फुल रहनी चाहिए। तो देर किस बात की। जुड़े हमारी कम्पनी से और कमाएं हजारों रूपया महीना। शुभ अवसर का लाभ उठाए। और कुछ इस तरह के होते है। गृह-क्लेश,आपसी मनमुटाव,पति-पत्नी में अनबन,आदि घर समस्याओं का घर बैठे समाधान। श्रीश्री गुरुजी द्वारा तैयार किया रक्षा कवच मंगवाए। उसे पहनिए और समस्याओं से छूटकारा पाए। ऐसे एड बार-बार टीवी स्क्रीन पर आते है तो लोग उसे ललचाई निगाहों से देखते हैं।उनके मन में वैसी ही लालसा पैदा होने लगती हैं। यह लोग शर्त ओर रख देते हैं। समस्या का समाधान नहीं होतो पूरे पैसे वापस। तो फिर देर किस बात की। अभी टीवी स्क्रीन पर दिए गए नम्बर पर फोन लगाएं। हमारा प्रोडेक्ट ऑडर कीजिए।
मेरे चाचाजी कई दिनों से किसी आंतरिक समस्या से जूझ रहे थे। कहते है ना परेशान हुआ क्या नहीं करता?चाचाजी ने लगा दिया फोन।कर दिया ऑडर। एक वीक उपरांत आया गया पार्सल। देखे पार्सल चाचाजी बंदर की तरह उछलने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे चाचाजी के हाथ संजीवनी बूटी लग गई हो। चाचाजी ने ज्यों ही पार्सल खुला। पार्सल में घास-पूस और एक चिट्टी थी। जिस पर लिखा था। अपनी समस्या का समाधान स्वयं करें। पढ़कर चाचाजी के होश उठ गए। आंखे फटी की फटी रह गई। अपना सिर पिटने लगे। मैंने कहा-'चाचाजी! ऐसा करने से अब कुछ नहीं होगा।Ó चाचाजी बोले,' अब क्या करू बेटामैंने कहा,'अब करने से कुछ नहीं होगा। यह कमार खाने का धन्धा है,उनका। ऐसे समाधान होने लगे तो पता है न आपको देश में कित्ती समस्याएं है। गिनाने लगे तो सुबह से शाम हो जाएंगी। लेकिन समस्याएं पूरी नहीं होंगी। ऐसे समाधान होते तो हमें पाकिस्तान से लडऩे की जरूरत ही नहीं। टोल फ्री हेल्प लाइन से जनमानस की समस्याओं का समाधान नहीं होता। चार बार फोन लगाओं,तब तो लगाता है। वह भी घंटे भर में। जब तक पूरी जन्म कूण्ड़ली नहीं जाने लेंगे। तब तक शिकायत दर्ज नहीं करते। अन्त में कहेंगे-जल्द ही आपकी समस्या का समाधान हो जाएंगा। आपका दिन मंगल में हो। समस्याओं का ऐसे समाधान होने लगा तो मुल्क में भ्रष्टाचार,महंगाई,ऐसे खुलेआम नहीं घूमती। अब तक तो नकेल कस जाती।
Ó चाचाजी बोले,'बेटे मेरे तीन हजार रूपए का क्या होगामैंने चाचाजी को सांत्वना देते हुए कहा,'तीन हजार रूपए को भूल जाओं। जिस तरह श्मशान में गई हुई लकड़ी वापस नहीं आती। उसी तरह उनके पास गए हुए पैसे वापस नहीं आते।Ó
यह सुनकर चाचाजी कोध्रित हो गई और बोले,'ऐसे कैसे भूल जाए?खून-पसीने की कमाई थी।Óमैंने कहा,'अब कुछ नहीं होगा। उनका रोज का काम है। वे खून-पसीना नहीं देखते। रोकड़ी देखते है।Ó यह सुनकर चाचाजी निरूत्तर हो गए।
मैं भी एक बार झांसे में आ गए था। हमारे घर पर चूहों ने हमला बोल दिया था। उन्हें सबक सीखाने निकले था। खुद सबक सीखकर आ गया। हुआ यूं कि एक व्यक्ति चूहे मारने की दवा बेच रहा था। मैंने उससे पूरे दस पैक्ट खरीदे। घर आकर खोले तो हर पैक्ट में एक ही बात लिखी हुई थी। चूहे पकडय़े और मारये। यहीं एक मात्र समाधान है चूहे मारने का। तब से मैं तो इन समस्याओं के झमेले में पड़ता नहीं। अपनी समस्या से खुद ही निपटता हूं।आप भी ऐसे समाधानों से दूर रहेंगे तो बेहतर है।

5 Apr 2016

समस्‍यायें बढ़ाने वाला समाधान - दैनिक ट्रिब्यून



समस्‍यायें बढ़ाने वाला समाधान
आधुनिकता में घर बैठे समस्या का समाधान काफी लोकप्रिय हो रहा है। सबको घर बैठे समाधान चाहिए। खर्चा चाहे दुगना हो जाए। रोजमर्रा की जिंदगी में इनसान विविध समस्याओं से लड़ता है। कभी जीतता है,तो कभी हारता है। इस हार-जीत से छूटकारा पाने के लिए वह घर बैठे समाधान चाहता है।
 आज कल घर बैठे समाधान करने वाले भी,जगह-जगह दुकान खोले बैठे हैं। कुछेक टीवी पर छाए हुए हैं। कुछेक अखबार के क्लासीफाइड में अंकित रहते हैं। घर बैठे,पार्ट टाइम,फुलटाइम,एसएमएस करके कमाएं दस से बीस हजार रूपए महीना। बस आपके पास स्माटफोन और लैपटॉप होना चाहिए। इंटरनेट होना चाहिए। तो देर किस बात की। जुड़े हमारी कम्पनी से और कमाएं हजारों रूपया महीना।
गृह-क्लेश,आपसी मनमुटाव,पति-पत्नी में अनबन,आदि घर समस्याओं का घर बैठे समाधान। श्रीश्री गुरुजी द्वारा तैयार किया रक्षा कवच मंगवाए। उसे पहनिए और समस्याओं से छूटकारा पाएं। ऐसे एड बार-बार टीवी स्क्रीन पर आते है तो लोग उसे ललचाई निगाहों से देखते हैं। समस्या का समाधान नहीं होतो पूरे पैसे वापस। तो फिर देर किस बात की। अभी टीवी स्क्रीन पर दिए गए नम्बर पर फोन लगाएं। हमारा प्रोडेक्ट ऑडर कीजिए।

मेरे चाचाजी कई दिनों से किसी आंतरिक समस्या से जूझ रहे थे। चाचाजी ने लगा दिया फोन। एक सप्‍ताह उपरांत आया पार्सल। चाचाजी ने पार्सल खुला। पार्सल में घास-पूस और एक चिट्टी थी। जिस पर लिखा था-अपनी समस्या का समाधान स्वयं करें। चाचाजी अपना सिर पिटने लगे। मैंने कहा-चाचाजी! ऐसा करने से अब कुछ नहीं होगा।

ऐसे समाधान होने लगे तो पता है न आपको देश में कित्ती समस्याएं है। गिनाने लगे तो सुबह से शाम हो जाएंगी। ऐसे समाधान होते तो हमें दुश्‍मन से लडऩे की जरूरत ही नहीं होती। समस्याओं का ऐसे समाधान होने लगा तो मुल्क में भ्रष्टाचार,महंगाई,ऐसे खुलेआम नहीं घूमती। चाचाजी बोले-बेटे मेरे तीन हजार रूपए का क्या होगा?मैंने चाचाजी को सांत्वना देते हुए कहा- तीन हजार रूपए को भूल जाओं। जिस तरह श्मशान में गई हुई लकड़ी वापस नहीं आती। उसी तरह उनके पास गए हुए पैसे वापस नहीं आते।
मेरा पड़ोसी भी एक बार झांसे में आ गए था। उसके घर पर चूहों ने हमला बोल दिया था। एक व्यक्ति चूहे मारने की दवा बेच रहा था। उसने उससे दस पैक्ट खरीदे। घर आकर खोले तो हर पैक्ट में एक ही बात लिखी हुई थी- चूहे पकडिय़े और मारिये। आप भी ऐसे समाधानों से दूर रहेंगे तो बेहतर है।

1 Apr 2016

दैनिक हरिभूमि व दैनिक ट्रिब्यून

अप्रैल फूल का रोमांच 

01 अप्रैल 2016- दैनिक हरिभूमि 
एक अप्रैल यानी अप्रैल फूल डे। मूर्ख बनने बनाने का डे। इस दिन लोग मूर्ख बनाने के नये-नये तरीके अपनाते हैं। कैसे मूर्ख बनाएं?किसको बनाएं?के लिए आइडिया खोजते है। वे सब हथकंडे अपनाते है,जिससे मूर्ख बनाया जाए। मूर्ख बनाने का सशक्त हथिहार है,झूठ। आज के युग में कौन झूठ बोल रहा और कौन सच?यह परखना जरा मुश्किल है। झूठ सच लगता है और सच झूठ। जिंदगी झूठ सच के भूलभूलया में उलझी हुई है। जब से मोबाइल का प्रचलन बढ़ा है,तब से झूठ ने चार गुणा बढ़ोत्तरी कर ली है। मोबाइल पर तो ज्ञानी से ज्ञानी भी मूर्ख बन जाता है। बीस किलोमीटर दूर बैठा व्यक्ति भी मोबाइल पर यहीं कहता है। दो मिनट में आ रहा हूं। पांच मिनट में पहुंच रहा हूं। नजदीक ही हंू। इत्ती स्पीड़ तो हवाई जहाज की नहीं होती जित्ती इन दो,पांच मिनट वालों की होती है। झूठ हम बोलते है,बदनाम मोबाइल हो रहा है।अक्सर लोग कहते है,मोबाइल झूठ बोलता है। बोलवाता है। जबकि इंसान
झूठ बोलने में महारथी है। झूठ बोलकर हम मूर्ख बना भी देते हैं एवं बन भी जाते हैं। झूठ कि बुनियाद पर तो हम महल खड़ा कर देते है। जिसे देख सच कि इमारत भी ध्वस्त हो जाती है। आधुनिकता में झूठ में तो वह सामथ्र्य है कि वह लोमड़ी को भी गर्दभ बना देती है। वरना लोमड़ी को मूर्ख बनाना टेड़ी खीर है। झूठ के बल पर तो कईयों की रोजी-रोटी चल रही हैं। कारोबार चल रहा है। कुरसी टिकी हुई है। प्रेम-प्रसंग बना हुआ है। न जाने झूठ पर कैसे-कैसे पुष्प खिल रहे हैं?खिला रहे हैं।सींच रहे है। कई तो झूठ बोलने में इत्ते पारंगत है कि आटे में नमक नहीं,बल्कि नमक में आटा मिला रहे हैं। झूठ तो लोगों की रग-रग में भरा पड़ा है। हमारे नेताजी का तो ब्लड गु्रप ही झूठ पॉजिटिव है। इनका तो कारोबार ही झूठ के बल पर फल-फूल रहा है। हमारे नेताजी राष्ट्रीय नेता तो है नहीं,जो झूठ नहीं बोलेंगे। मूर्ख बनाने के लिए झूठ तो बोलना ही पड़ता है। तबी बंदा अप्रैल फूल बनता है। जो झूठ बोलने में पारंगत है,वह मूर्ख बना देता है और जो पारंगत नहीं है,वह मूर्ख बन जाता है। अलबत्ता हम फस्र्ट अप्रैल को मूर्ख दिवस मनाते है। किंतु रोजमर्रा की जिंदगी में नित्य हमें कोई ना कोई मूर्ख बनाता है। हम बनते है। बनाते है। दूधवाला दूध में पानी मिलावट कर मूर्ख बना रहा है। सब्जी वाला सड़ी-गली सब्जी पेल कर मूर्ख बना रहा है। परचून वाला कंकड़ मिलाकर मूर्ख बना रहा है। कोई नाप-तौल,मोल-भाव में उलझा कर मूर्ख बना रहा है। पेट्रोल-डीजल के घटते-बढ़ते दाम मूर्ख बना रहे हैं। अपनी ओर आकर्षित करते विज्ञापन मूर्ख बना रहे हैं। सांवली त्वचा को गोरी करने वाली क्रीम व सफेद बालों को काला करने वाला तेल मूर्ख बना रहा है। अच्छे दिनों का सपना। बैंक खातों में लाखों रूपए आना। जुमला। आदि-इत्यादि मूर्ख बना रहें हैं। अप्रैल फूल बनाने के लिए,झूठ बोलना ही पड़ता है। वरना बंदा अप्रैल फूल कैसे बनेंगाफस्र्ट अप्रैल को,जो मूर्ख नहीं बनाया,वह बंदा ही क्या?इस दिन तो,जो मूर्ख बनाए वहीं सिकंदर है।