31 Jan 2018

वसंत अब ऑनलाइन ही मिलेगा

मोहनलाल मौर्य

वसंत वसंतपंचमी को परदेश से आया था। मैंने ही नहीं दीनू काका ने भी देखा था। देखा क्या था,उसने दीनू काका के पैर भी छूए थे। काका ने शुभाशीष भी दिया था-जुग-जुग जियों वसंतराज। यूं ही आते-जाते रहना। सदा यू हीं मुस्‍कराते रहों।वसंत समूचे मोहल्ले वासियों का चेहता हैं। हर साल इन्हीं दिनों में घर आता है। कपड़ों का बैग भरकर लाता हैं। वसंत को पीले वस्त्र बहुत प्रिय हैं। उसका रूमाल तक पीले रंग का होता है। सब उससे मिलना चाहते हैं। पर जबसे आया है, दिखाई नहीं दे रहा है। वसंत कल रामू काका पूछ रहे थे- सुना है वसंत आया हुआ है?’ मैंने कहा-आपने ठिक सुना है।यह सुनकर वे बोले-तो फिर वह कहां है? मैंने तो उसे देखा ही नहीं और ना वह मुझे मिला है।इस पर मैंने उन्हें समझाते हुए कहा-काका! वह आजकल आप से ही नहीं, किसी से भी मिलता-जुलता नहीं है।किसी ओर कि तो क्‍या क्‍यूं? लेकिन अपुष्‍ट खबर है कि जिनका वह अजीज हैं,उनसे ही रूष्‍ट हैं।
रामू काका चौंके-क्या कह रहे हो? वसंत ऐसा लड़का नहीं है। वह तो जब भी आता है, सबसे मिलता है। बड़े-बुजुर्गों का अदब करता। प्यार-प्रेम की वार्ता करता है। जरूर किसी कार्य में व्यस्त होगा। या हो सकता है सर्दी का टाइम हैं खांसी-जुकाम हो गई हो। परदेश का तथा यहां का वातावरण अलग-अलग हैं,सूट नहीं किया हो।काका कि उक्‍त कथ्‍य मेरे गले नहीं उतरा तो मैंने काका से कहा-‘काका! ऐसी बात नहीं। बात कुछ और ही है। ’ यह सुनकर रामू काका बिना किसी वक्‍तव्‍य के ही वसंत की खोज-खबर में वहां से चल दिया। वसंत गोधूली के समय रामू काका वसंत से मिलने उसके घर पहुंचे। पर वह वहां नहीं था। उसके मां-बाप बता रहे थे कि जबसे आया है, फेसबुक पर ही चिपका रहता है। पता नहीं क्या हो गया है? गुमसुम रहता है। पहले तो खेत-खलियान में भी जाता था। सरसों के पीले-पीले फूल बरसाते हुए आता था। सबसे मिलता-जुलता था। पल दो पल ही सही लेकिन सबसे प्‍यार भरी मीठी-मीठी बातें करता था। सबका दिल जीत लेता था तथा दिनभर खुश रहता था। अब तो मुरझाया सा रहता है और दिनभर खाट पर औंधे मुंह करके लेटा रहता हैं। दिनभर पता नहीं मोबाइल में क्‍या देखता रहता हैं। मोबाइल पर से नज़र हटाता ही नहीं है। हमें तो डर कहीं छोरे की दृष्टि कमजोर नहीं हो जाए।  
अगले दिन मैं गया तो वसंत अपने कमरे में बैठा फेसबुक पर लिख रहा था- मैं वसंत हूं। परदेश से तुम्हारे लिए आया हूं। एक खास गिफ्ट लाया हूं। वैलेंटाइन डे पर मिलेगे...।तभी उसे कमरे में मेरे दाखिल होने का भान हुआ। उसने गर्दन मेरी आरे घुमाई और बोला-आप और यहां। कैसे आना हुआ?’
मैंने कहा-भाई! आपसे मिलने आ गया। आप जबसे आए हो, मिले ही नहीं। आपको रामू काका भी पूछ रहे थे और खुशनुमा मौसमी काकी भी पूछ रही थी। सच क्‍यूं तो कईयों को तो यकीन नहीं है कि वसंत आ गया है। आखिरकार बात क्या है?’ वसंत बोला-बात-वात कुछ नहीं है। अभी तुम जाओं। मैं व्यस्त हूं। शाम को फेसबुक पर ऑनलाइन मिलते हैं। वहीं वार्तालाप करते हैं।

मैं मन मसोसकर चला आया। रास्ते में रामू काका मिले। उन्होंने पुन: पूछा-वसंत मिला क्या? नहीं मिला तो कहां मिलेगा?’मैंने कहा-काका,वसंत तो अब फेसबुक पर ऑनलाइन मिलेगा।

29 Jan 2018

मां आखिर मां होती है!

मोहनलाल  मौर्य
बच्चा ठोकर खाकर गिर जाए तो मां सौ काम छोड़कर उठाने दौड़ती है। भागकर उठाती है और सीने से लगा लेती है। देखती है कहीं चोट तो नहीं आई। संतान के खरोंच भी आ जाए तो मां का दिल दहल उठता है। मां की ममता निर्मल है। दया,करूणा की सागर है। मां आखिर मां होती है। चाहे सौतेली मां हो। चाहे धरती मां हो। मां का वात्सल्य अपनी संतान पर सदैव न्यौछावर रहता है। मां आखिर मां होती है
धरती मां भी धरती पुत्र से अगाथ प्रेम करती है। जिस तरह मां बच्चे को नौ महिने कोख में पालती है और जन्म देती है। उसी तरह धरती मां भी धरती पुत्र की फसल को अपनी कोख में पाल-पोसकर बड़ी करती है। धरती मां फसल बुवाई से लेकर कटाई तक। फसल की उसी तरह देखभाल करती है। जिस तरह एक मां अपने नवजात बच्चे की करती है। जब बच्चा रोता है तो मां उसे स्तनपान कराती है। उसे लोरी सुनाती है और जब बच्चा सो जाता है तो अपने गृहस्थी के कार्यों में जुट जाती है। इसी तरह धरती मां फसल को प्यास लगती है,तो पानी पिलाती है। भूख लगती है,तो खाद पदार्थ से पेट भरती है। आड़ी-तिरछी पड़ जाती है,तो आहिस्ता-आहिस्ता उठाती है और अपने आंचल में लपेटकर रखती है। मां के आंचल तले फसल भी को भी सुकून का अहसास होता है।

लेकिन जब अतिवृष्टि,ओलावृष्टि,अकाल से फसल चौपट होती है। तब धरती मां का कलेजा मुंह में आ जाता है। अपनी आंखों के सामने चौपट होती फसल और पुत्र की हालात देखकर धरती मां भी,अपनी मां की तरह विलाप में डूब जाती है। धरतीपुत्र चौपट हुई फसल की खातिर मुआवजे की मांग करता है,तो या तो गोली खानी पड़ती है या फिर लाठी चार्ज से भेंट होती है। यह देखकर मां पर क्या बीतती है। यह तो मां ही जानती है। मां आखिर मां होती है। मां आखिर मां होती है
अपने आंखों के सम्मुख पुत्र को तड़फता देखकर किस मां का कलेजा नहीं फटेगा। फिर यह तो धरती पुत्र है,जो कड़ी मेहनत करके हमारे लिए अनाज पैदा करता है। बेचारा दिन-रात जागता है और फिर भी फसल का भाव न्यूनतम मिलता है। न्यूनतम भाव से खुद की पूर्ति नहीं होती। सेठ-साहूकार और बैंक का कर्ज कैसे चूकता करें। ऐसी स्थिति में साल दर साल कर्ज पर कर्ज चढ़ता रहता है और एक दिन धरती पुत्र कर्ज तले दब जाता है। कर्ज तले दबे पुत्र को मां निकल नहीं पाती है। यह मलाल मां के सीने में ताउम्र दबा रहता है।

धरतीपुत्र भी खुशहाल जिंदगी जीना चाहता है। पर कर्ज का भार उठा नहीं पाता है। खुदकुशी का रास्ता जब वह अपनाता है। तब धरती मां खून की आंसू रोती है। मां की सेवा-सत्कार करने वाला बेटा,जब आत्महत्या करता है या कर्ज तले दबकर मरता है,तो उस मां पर क्या गुजरती है। उस मां से बेहतर कौन जानता होगा। मां आखिर मां होती है।

23 Jan 2018

आलोचक की मंशा पर फिरा पानी

मोहनलाल मौर्य
इस बात का किसकों भी भान नहीं था कि बैठक में आलोचक भी मौजूद है। भान होता भी कैसेवह तो बैठक में लोगों के बीच मौजूद होते हुए भी अदृश्‍य था। उसके साक्षात दर्शन तो तब हुए जब उसने अच्‍छी खासी हो रही संगोष्‍ठी में घुसपैठ कर मुठभेड़ किया। शुक्र है कि मुठभेड़ में आयोजकों की ओर से जवाबी कार्यवाही में कहासुनी की फायरिंग नहीं हुई। अन्‍यथा बैठक कक्ष हाथापाई की घाटी में तब्‍दील हो जाता। जवाबी कार्यवाही विनम्रता एवं प्रत्‍युत्‍तर से दी गई। यह दृश्‍य था एक आयोजन के एक माह पूर्व हुई बैठक का। आगे देखिए,कार्यक्रम से पूर्व और उपरांत में क्‍याक्‍या घटित होता है।आलोचक की मंशा पर फिरा पानी

अगले दिन कार्यक्रम की खबर अखबार में छपी। देख आयोजकों का नाम आलोचक जग गया और बिना हाथ-मुंह धोए ही काम पर लग गया। सबसे पहले तो उसने आयोजकों से सम्‍पर्क साधा। यह सोच के कि इनमें भी कोई ना कोई तो विभीषण होगा ही। जो मेरी सहायता कर देगा। आलोचक कोई मर्यादा पुरूषोत्‍तम राम तो था नहीं। जिसकी सहायता के लिए आयोजकों में से कोई विभीषण बनकर मदद करता। खुद ना आए तो क्‍या हुआउसने एकाध को अपने ओर खींचा। जिन्‍हें खींचा,वे आसानी से चले आए। चले इसलिए आए कि वे प्रलोभन की रस्‍सी से और खुशामद की मजबूत पकड़ से खींचे गए थे। आलोचक की मंशा पर फिरा पानी
दरअसल में सामाजिक सामूहिक आयोजन में आयोजक को समाज के कई पथों से गुजरना होता है। भांति-भांति पथों पर भांति-भांति लोगों से बिन मांगी राय साथ लेकर चलनी होती है। पीठ पर शिकायत भी लाद दी जाएं तो उसे भी ढोना होता है। इनसे अलहदा आलोचक है,जो आयोजक के गुणगान में उस बांसुरी में फूंक मारता रहता है। जिसमें से निंदनीय ध्‍वनि निकलती है। जिसे सुनकर आयोजक भाव-विभोर हो जाता है। आलोचक के बोल गुब्‍बारे की भांति आसमान को छूने के लिए मचलते हैं। लेकिन आसमान को छूने की को‍शिश में जो हालात गुब्‍बारे की होती है। वैसी ही हालात आखिर में उसके बोले गए ‘बोल’की होती है।
आयोजक आयोजन में चार चांद लगाने के लिए कई दिनों से ग्रह त्‍याग कर अपनी झोली उठाए द्वार-द्वार दस्‍तक देता हैं। आग्रह से भरी झोली में से आग्रह निकालकर प्रसाद की तरह लोगों को बांटता है तथा झोली फैलाकर योगदान की भीख मांगता है। कोई आग्रह के प्रसाद के बदले में स्‍वेच्‍छा से चंदे का दान देता है तो कोई सादर नमस्‍कार कर अलविदा कह देता है। तब कहीं जाकर आयोजन सफल हो पाता है।
रोज की तरह सूर्योदय ने उस दिन की भी खबर दी। जिस दिन का आयोजन था। आलोचक अपने फूंक मारे प्‍यारों के साथ सबसे आगे ही विराजमान था। समारोह की चकाचौंध एवं अपेक्षा से ज्‍यादा लोगों की तादाद को देख हैरान था। कि गई आलोचना से जो आशा थी वहीं आशा अपने प्रेमी के साथ निराशा का खत लिखकर भाग गई थी। अब ऐनवक्‍त पर करें तो क्‍या करेंआशा लौटकर आ नहीं सकती। आखिरी आलोचना मन मसोस कर चुपचाप कार्यक्रम देखना ही रह गई थी। जिसका उसने पूरे मनोयोग से उपयोग किया और समारोह समापन तक पूरा आनंद लिया। 

20 Jan 2018

अनुभवी को प्राथमिकता

मुझे यह कहकर साक्षात्‍कार से बाहर की राह दिखा दी कि ना तो अनुभव है और ना ही अनुभव प्रमाण पत्र है। हम अनुभवी को ही प्राथमिकता देते हैं। दुख बाहर किए जाने का नहीं है। बाहर तो कई बार मुझे यार-दोस्‍तों ने भी कर दिया हैं। कई बार कुपित होकर पिताजी ने बाहर कर दिया। बाहर करना था तो कह देते,तुम्‍हारे पास अप्रोच नहीं है। तुम्‍हारे पास कोई सोर्स नहीं है। तुम्‍हारे पास फलाना नहीं है। तुम्‍हारे पास डिमका नहीं है। ये क्‍या बात हुई कि तुम्‍हारे पास अनुभव नहीं है? अरे,अनुभव तो मि‍त्रों! मित्रों के पास भी नहीं था। फिर भी हवा में उड़े की नहीं। और ऐसा उड़े कि परिंदे भी जिंदगी भर में जितना नहीं उड़े कि वे पांच साल में उतने उड़ लिए। अनुभवी को प्राथमिकता
अनुभव को प्रमाण कि क्‍या जरूरत है? अनुभव तो मेरे अंदर कूट-कूट के भरा है। यकीन न हो तो कूट-कूट कर देख लो। सैम्‍पल लेकर देख लो भाई! रक्‍त का,मांस का,मज्‍जा का। बोटी-बोटी से अनुभव टपेगा। अंग-अंग से फड़क उठेगा। इसके बाद भी अगर प्रमाण लेना ही है तो एक कागज के टुकड़े पर लिखे ढाई आखर के प्रमाण से क्‍या लेना? इस तरह के प्रमाण के प्रमाण पत्र तो रद्दी के भाव में बहुत मिल जाते हैं। लेना ही है तो कुछ दिन अवसर देकर लीजिए। फिर मेरा प्रायोगिक अनुभव देखकर अपने आप आभास हो जाएंगा।
जब पैदा हुआ,बड़ा हुआ,अपने आस-पास देखा तो अनुभव मिला। क्‍या मालिया कर्जे से डूबता छोड़ अनुभव लेकर पैदा हुआ था? उससे सीखा कि ऋण लेकर घी पीना चाहिए। फिर देश-दुनिया देखी। सीखा कि पांव पूजाने का अनुभव। जरूरत पड़ी तो पांव उखाड़ने का अनुभव भी पाया। धवल धारियों से सीखा कि वक्‍त जरूरत पड़ने पर किस तरह पलटी मारी जाती है। पलटी मारकर किस तरह बाजी जीती जाती है। गधे को बाप बनाने का हुनर तो अब पुराना हो गया। आजकल तो मैं इतना सीख गया हूं कि शेर को बच्‍चा बना सकता हूं। हाथी को पहाड़ के नीचे ला सकता हूं। ऊंट को पहाड़ पर ले जा सकता हूं। उखड़े को गाड़ सकता हूं। गाड़े को उखाड़ सकता हूं। इतना सर्वतोमुखी सम्‍पन्‍नता के बाद भी बाहर कर देना कैसे हजम होगी। बताओं भला! आज के हालात में और देश में जीने के लिए ऐसे अनुभवों की दरकार है या नहीं? एक बार मौका देकर तो देखे,दम नहीं,खम देखें,पांच सितारा बुंलदी ना देखा दो तो सच्‍चा भारतीय नहीं। आप तो धार देखें,चाहे तो उधार देखें,और एक बार सेवा का मौका दे। अनुभवी को प्राथमिकता
मुझे पच्‍चीस तीस प्रतिशत अनुभव तो पुश्‍तैनी विरासत से मिला है। पच्‍चीस प्रतिशत संघर्ष करके अर्जित किया है और चौदह प्रतिशत साक्षात्‍कार देते रहने से हो गया है। कुलयोग किया जाए तो चौंसठ प्रतिशत होता है। मुझे मालूम है,आज के युग में चौंसठ प्रतिशत की कोई वैल्‍यू नहीं। इसलिए शेष छत्‍तीस प्रतिशत के लिए भी प्रयासरत हूं। वैसे देखा जाए तो छत्‍तीस प्रतिशत वाले नब्‍बे,पचानवे प्रतिशत वालों पर हुक्‍म चलाते हैं। साथ में वे ही अनुभव के आधार पर देश चला रहे हैं। और नब्‍बे,पचानवे वाले उनकी हां में हां और ना में ना मिलाकर भागीदारी निभा रहे हैं। अनुभव के आधार पर तो झोलाछाप डॉक्‍टर क्‍लीनिक चला रहे हैं। धड़ल्‍ले से मरीजों का इलाज कर रहे हैं और खूब पैसा कमा रहे हैं। बिना लाइसेंस धारी अनुभव के आधार पर मोटरसाईकल से लेकर ट्रक तक दौड़ा रहे हैं और ट्रैफिक पुलिस वाले उनका बाल भी बांका नहीं कर पाते। एक मैं हूं,जिसे चौंसठ प्रतिशत अनुभवी होते हुए भी बाहर की राह दिखा दी जाती है। बताओं! क्‍या यह सही है?
मुझे तो लगता है कि इन्‍हीं की वजह से मुल्‍क में मुझ जैसे अनुभवियों का हिमांक अनुपात हिमांक बिंदु से नीचे गिरता जा रहा हैं। जिसके चलते ज्यादातर अनुभवी स्‍वदेश छोड़कर विदेश के ओर पलायन कर जाते हैं और शेष बचे-खुचे यहीं रह जाते हैं। जिनके रहने के तमाम कारण हैं। जिनमें मुख्‍य कारण परिस्थिति है। और परिस्थिति अच्‍छे से अच्‍छे अनुभवी को बेरोजगारी का दामन थमा देती हैं। क्‍योंकि परिस्थिति को रोज दर-दर की ठोकरों से मिली सम्‍मान पूर्वक सेवा-सत्‍कार अच्‍छी लगती हैं।
जब बाहर निकला तो सोचा,मतलब अनुभव पाया कि अब मैं धक्‍के नहीं खाऊंगा। धक्‍के देकर आगे बढ़ना होगा। जिंदगी इतनी सरल नहीं मोहन बाबू कि सारी जिंदगी धक्‍के खाते रहो। देखना अब मेरे अनुभव का कमाल। ऐसा धमाल मचाऊंगा कि देखकर सब ढंग रह जाएंगे। जिन्‍होंने बाहर की राह दिखाई है ना वे भी देखकर दांतों तले उंगली चबाते रह जाएंगे।

19 Jan 2018

मूर्खता के नेपथ्‍य में समझदार

मोहनलाल मौर्य

आप भले ही उसे मूर्ख समझते होंगे। वह तो अपने आपको समझदार समझता है। समझता क्या हैसमझदार है। रंगमंच पर उसका अभिनय देखकर उसे मूर्ख समझना आपकी ही मूर्खता हैं। वह मूर्खता के नेपथ्य में अभिनयचातुर्य है। आप भूल से भी उसे मूर्ख मत समझ लेना। यह समझ लो कि उसकी मूर्खता ही उसका पेशा है। वह अपने पेशे में सिद्धहस्त है। वैसे तो आप भी अपने पेशे में सिद्धहस्त होंगे। लेकिन मूर्खता में सिद्धहस्त होना तो कोई उससे ही सीखे। सीखे नहीं तो देखे कि वह किस तरह मूर्खता का अभिनय करता है। उस वक्‍त यह नहीं सोचे कि मूर्ख बनने के पीछे बेचारे की कोई मजबूरी होगी। मूर्खता उसकी मजबूरी नहीं,समझदारी है। जिसकी वह जान-बूझकर अदाकारी  करता है। जिसे देखकर आप समझ बैठते है कि वाकई में मूर्ख है। इसी वक्‍त आप सोचे-समझे तो उसकी मूर्खता की कलाकारी को समझ सकते है। लेकिन आप सोचते-समझते नहीं। क्‍योंकि आप तो अपने आपको समझदार समझते हो और आप जैसे समझदार सोचते-समझते थोड़ी है। आप तो जो देखते-सुनते है उसे ही सच समझते है। शायद आपने अभी तक यह नहीं सुनना होगा कि आंखों देखी और कानों सुनी भी कई बार सच नहीं होती। सुनी होती तो आप अब तक समझदारी छोड़कर उसकी मूर्खता की खोज में जुट गए होते।
लेकिन एक बात आप अब भी समझ लो। आप उसे मूर्ख कहकर लताड़ते रहते हो। वह निरुत्तर रहता है इसलिए। उसके निरुत्तर में प्रत्युत्तर होता है,पर वह देना नहीं चाहता। आप यहीं कहेंगे कि क्यों नहीं देना चाहतावह आपको ही मूर्ख समझता है। एक दफा उसने मुझे बताया था कि उस मूर्ख से तर्क करना समझदारी नहीं बेवकूफी है। यह सुनकर एक बार तो मैं भी हतप्रभ रह गया। आपकी नजर में वह बेवकूफ है और उसकी नजर में आप बेवकूफ है। समझ में नहीं आता कि आप दोनों में से मूर्ख कौन है और ज्ञानी कौन हैवह या आप। वह लगता नहीं और आप होंगे नहीं। आप अपने आपको समझदार जो मान बैठे हो। आपको मूर्ख घोषित करना भी मूर्खता होगी। क्‍योंकि इसमें मूर्खता की ही तौहीन होगी। आपकी वजह से मूर्खता की तौहीन होना। आपकी समझदारी के मुंह पर तमाचा है। आपकी समझदारी पर तमाचा पड़ना आपकी तौहीन नहीं,समझदारी की तौहीन है। समझदारी की तौहीन होना समझदार से समझदारी का गायब होना है। इसलिए आप तो अपने आप में समझदार ही रहे।

कहीं आप मुझे भी तो मूर्ख नहीं समझ रहे है। कुछ लोग मूर्खो जैसी वार्ता करने वालों को भी मूर्ख समझ लेते हैं। आपने सुना भी होगा,देखों कैसी मूर्खो जैसी बात कर रहा हैं। इसलिए कह रहा हूं। आप मुझे भी मूर्ख समझ रहे है तो ठीक ही समझ रहे है। हो सकता है,मैं भी मूर्ख हूं। अगर मैं मूर्ख हूं तो मेरे लिए तो गर्व की बात है। अब आप कहेंगे इसमें गर्व वाली बात कहां से आ गई,जो आप गर्व कर रहे हो। मैं गर्व इसलिए कर रहा हूं कि मूर्खता में जो सुख-चैन है,जो आनंद है। वह भला समझदारी में कहां है? क्‍योंकि मूर्ख से कोई जल्‍दी सी उलझता नहीं है। उलझता है तो गुत्थी झुलझती नहीं। इसलिए मेरी तो मूर्खता में ही समझदारी है। मूर्खता में समझदारी का फायदा एक नहीं,अनेक है। एक तो ज्‍यादा माथापच्‍ची नहीं करनी पड़ती है। दूसरा अपना काम आसानी से हो जाता है। और किसी को संदेह भी नहीं होता कि बंदा मूर्ख नहीं समझदार है। इससे ज्‍यादा अपने को चाहिए क्‍या?
आप जिसे मूर्ख समझते होना उसे ही देख लो। आपसे अपना स्वार्थ नि:स्वार्थ करवाना उसकी फितरत है। चेहरे पर भोलापन और जुबान में मिठापन नैसर्गिक लगे ऐसे बोल बोलता है,जो उसका हुनर है। अजीबोगरीब वार्ता कर अपना उल्लू सीधा करना उसकी मूर्खता नहीं,चालाकी है। अब तो आप समझ गए ना कि वह मूर्ख नहीं है। बल्कि मूर्खता के नेपथ्‍य में डेढ़ गुणा समझदार है। कहना का तात्‍पर्य तो आप समझ ही गए होंगे। अगर आपको अब यकीन नहीं आ रहा है तो आप उसकी तहकीकात कर लीजिए। फिर आपको यकीन नहीं आए तो कहना। मैंने तो उसकी तरह मूर्खता का अभिनय करने वाले मेरे पड़ोसी गंगाराम का ही अनुसरण किया है। वह भी उसकी शरण में गए बैगर। क्‍योंकि गंगाराम शरणार्थियों को मूर्खता में समझदारी का ज्ञान नहीं परोसता। उसकी तो बगैर शरण में गए ही उसकी भावभंगिमा से ही मूर्खता में समझदारी का ज्ञान अर्जित किया जा सकता है। वह भी सावधानी पूर्वक। उसे भनक भी लग जाती है तो वह आप से पहले सावधान हो जाता है। और अहसास तक होने नहीं देता है। अहसास हो जाए तो मूर्खता में समझदारी का जो लिबास पहन रखा है वह उतर जाए।
अब भी आपके समझ में नहीं आया तो आपकी आप जानों। मेरा कर्तव्‍य समझाना नहीं बताना था,जो मैंने बताया दिया। समझदार को क्‍या समझाए? फिर आप तो मुझे समझदार ही नहीं डेढ़ गुणा समझदार लगते हो। लेकिन मेरी एक बात जरूर ध्‍यान रखएंगा। जिसमें आपकी भलाई है। बात दरअसल यह है कि अपनी समझदारी अपने पास ही रखिये। कहीं ओर काम आएंगी। यहां ही व्यर्थ कर दी तो कहीं ओर किससे काम चलाओंगे। क्‍योंकि समझदार होना तो बनता है पर समझदारी दिखाना कहां चलता है। जहां चलता है वहां चलाए। किंतु देखकर चलाए,कहीं कोई चालान नहीं काट दे। चालान कट गया तो समझ लो जुर्माना भरना ही पड़ेगा। और समझदारी दिखाने का जुर्माना कई बार बहुत महंगा पड़ता है। अब आप सोच लो। एक बार फिर कह रहा हूं मूर्खता में ही समझदारी है। समझदारी में तो खतरा भारी है और डेढ़ गुणा समझदारी की तो बात ही न्‍यारी।
                                  व्‍यंग्‍योदय अंक 06-2018


समीक्षा- आखिरकार विकास मिल गया



अरे भाई, मुझे भी झूठ बोलना सीखा दो




1 Jan 2018