15 Dec 2019

सर्दी


सर्दी धीरे-धीरे ही सही,मगर बढ़ने लगी है। जब ठण्डक बढ़ती है तब मूंगफली,पकौड़ी एवं अंडेवालों की बन आती है। मगर जेबकतरों की कमाई घटने लगती है क्योंकि लोग जेब में से हाथ बाहर निकालते ही नहीं।  जेबों के अंदर ही डालें रहते हैं। पर चोरों की पौ बारह हो जाती है। जनता रजाई में दुबकी रहती है,चोर आराम से चौर्यकर्म कर निकल जाते हैं। भोर को भी शोर नहीं करते हैं कि घर में चोर घुस गए हैं। हमारे चोरी हो गई है। शोर तब मचाते हैं। जब गुनगुनी धूप निकल आती है। तब तक चोर बहुत दूर जा चुके होते हैं।

पुलिस इत्तला होने के बाद भी देरी से क्यों आती है। क्योंकि पुलिस की जीप ठंड के कारण जल्दी सी स्टार्ट ही नहीं हो पाती इसलिए देर हो जाती है। वर्दी को भी सर्दी तो लगती है। वर्दी के अंदर है तो एक इंसान ही।उसके भी जाड़ा तो चढ़ता ही है। जब जाड़ा चढ़ता है न तब गाड़ी तेज नहीं धीमी ही चलती है। सर्दी में गश्त करना मटरगश्ती तो है नहीं। डंडा लेकर घूम फिरकर आ गए। यह भी नहीं है कि वर्दी को देखकर सर्दी भाग जाती हैं। सर्दी वर्दी तो क्या? किसी से नहीं डरती है। बल्कि इससे ही जनता भयभीत रहती हैं। इसीलिए तो सर से पांव तक गरम परिधान पहने रहते हैं। कइयों को तो सर्दी से इतना डर लगता है कि रात को सोते समय भी जुराब पहनकर सोते हैं। पूरी रात जुराब की महक लेते रहते हैं। महक से इतने मदहोश हो जाते हैं कि जब दिन सर पर आ जाता है तब बिस्तर छोड़ते हैं।
सर्दी ही है,जो रोज बदन पर सरसों के तेल की मालिश करवाती हैं। जो मालिश करने का आलस्य करता है। उसके खुजली चला देती है। फिर वह झक मारकर करता है। सर्दी के दिनों में ही व्यक्ति दबाकर खाता है। इसका आगमन होते ही देसी घी की मांग बढ़ जाती हैं और भाव आसमान पर पहुंच जाता हैं।
सर्दी में कुत्ते भी नहीं भोंकते हैं। वो भी अंग्रेजी वाला आठ बने रहते हैं। इनके समीप होकर भी कोई गुजर जाए,तो भी वे आठ से सतर्क एक में तब्दील नहीं होते। कौन जा रहा है,यह देखकर भी क्या करनाभौंकना तो है नहीं। फिर क्यों किसी को रोके। इनकी भी मजबूरी है। भौंकने को तो खूब भौंक ले,पर भौंकने के लिए मुंह तो खुले। मुंह ठण्ड के मारे खोलने से भी नहीं खुलता।
सर्दी में जितना परिवार एक जगह बैठे दिखता है उतना अन्य किसी ऋतु में नहीं दिखाई देता है। चूल्हे के चारों ओर घेरा बनाकर घर के छोटे-बड़े सब हाथ तापते रहते हैं और तवे पर रोटी सिकती रहती हैं। रोटी बदलते समय किसी के हाथ के चिमटा लग जाता है तो नाराज नहीं होता है। बल्कि हाथ मसलकर मुस्कुरा देता है। यह सर्दी का ही कमाल है,जो कि गर्म चिमटा लगने के बावजूद भी कहासुनी नहीं होती। अन्यथा गर्म चिमटा छू जाए तो लोग घर को सिर पर उठा लेते हैं। 
सर्दी में पानी की बचत भी बहुत होती है। मुझ जैसा तो सप्ताह में एकाध बार ही स्नान करता है। जब ड्राइक्लीनिंग से ही काम चल जाता है तो क्यों कोई पानी बर्बाद करें। पानी बर्बाद करने के लिए थोड़ी है। गर्मियों के लिए सहेजकर रखने के लिए है।

29 Nov 2019

जिसका बहुमत,उसकी सत्ता सुंदरी


एक माह से चल रहा महाराष्ट्र का महानाटक इस तरह से संपन्न होगा। यह किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा।समापन का पार्ट संपन्न होने वाला ही था कि एकाएक मुख्य पात्र बदल गए। किरदार निभा रहे पात्र भी आश्चर्यचकित हैं। पात्र बदल कैसे गए। वो भी एक ही रात में। जो सुबह सुहावनी होनी थी। वह सुनामी में बदल गई। बगैर ढोल नगाड़े बजे ही शपथ ग्रहण समारोह हो गया। मुख्यमंत्री की भूमिका निभानी किसी और को थी और निभा ली किसी और ने। जिसने निभानी थी वह तो चादर तानकर सो गया और जिसने अलसुबह ही शपथ लेकर निभा ली,वह पूरी रात जागकर यह बता दिया कि जो सोवत है। वह खोवत है।

जिसने उपमुख्यमंत्री की भूमिका निभाई,उसने तो कमाल ही कर दिया। सगे चाचा को ही गच्चा देकर यह बता दिया है कि अब मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं। जो कि सियासत का खेल खेलना नहीं जानता हूं। मुझे सियासी खेल खेलना अच्छी तरह से आता है। समय और मौके का फायदा उठाना गद्दारी नहीं। राजगद्दी पर बैठने की समझदारी है। मैंने मौके पर जो चौका मारा है,उससे चौंकिए मत। सोचिए,मौके पर चौका इसी तरह से मारा जाता है। माना कि आप मंजे हुए खिलाड़ी हैं। पर कब और कैसे पलटी मारनी है। यह मुझसे से सीखिए। भविष्य में काम आएगी। हमेशा राजनीतिक तजुर्बा ही काम नहीं आता है। कई बार अपना सरनेम भी पावर क्या होती है दिखा देता है। अपन दोनों का एक ही  सरनेम होने के बावजूद भी उसका इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। इसलिए मैंने इस्तेमाल करके सरनेम को अखबारों की हेडलाइन बना दिया। जो कि हेडलाइन बनने के लिए कब से मचल रहा था। सुर्खियां बटोरने के लिए भी गठबंधन का जोड़-तोड़ करना पड़ता है। बगावत करनी पड़ती है। पाला पलटना पड़ता है। विरोधियों से हाथ मिलाना होता है। तब कहीं जाकर सुर्खियां प्राप्त होती हैं।

लेकिन यहां पर चाचा भी कमतर नहीं है। उसने भी होटल में शक्ति प्रदर्शन करके दिखा दिया कि यह देखिए बहुमत। पूरे एक सौ बासठ हैं। यह देखकर भतीजा भौंचक्का रह गया। उसे इस्तीफा देना ही पड़ा। साथ में जितने शपथ ली थी उसे भी देना पड़ा। अब उसके अच्छी तरह से समझ में आ गई होगी कि चाचा चाचा ही होता है। लेकिन तीन तिगड़ा और काम बिगाड़ा वाली कहावत चरितार्थ होती है या नहीं। यह समय के गर्भ में है।

सियासत में कुर्सी से बढ़कर कोई रिश्ता नहीं है। कुर्सी है तो रिश्ते तो थोक के भाव में मिल जाते हैं। जिन्हें जब तक मन करे निभाओ और जब मन करे तोड़ डालो। कोई बुरा नहीं मानता है। अगर कोई बुरा मान भी जाए तो अवसर पड़ने पर उसे प्रलोभन देकर मना लो। कोई प्रलोभन से भी नहीं माने तो उसके सामने कुर्सी का प्रस्ताव रख दो। फिर देखिए,वह अपनों को छोड़कर गैरों के पास कैसे दौड़ा चला आता। क्योंकि कुर्सी है तो सत्ता सुंदरी है। सत्ता सुंदरी के साथ भला कौन नहीं रहना चाहता है। हर किसी की इच्छा होती है कि सत्ता सुंदरी मेरी हो जाए। लेकिन यह होती उसी की है जिसके पास बहुमत होता है। फिर चाहे वह अकेली पार्टी का हो या गठबंधन द्वारा हो। जोड़ तोड़ कर किया हो या खरीद-फरोख्त के द्वारा हो। पर होना होना चाहिए पूरा बहुमत। आधे अधूरे से तो यह हाथ भी नहीं मिलाती है। इसने सबको अपने संग रहने का बारी-बारी से मौका दिया था। पर बहुमत नहीं होने के कारण मौका नहीं ले पाए।
मोहनलाल मौर्य

21 Nov 2019

बोतल में सांसे


दिल्ली एनसीआर के वातावरण में घुली जहरीली हवा को देखते हुए अब वे दिन ज्यादा दूर नहीं हैं। जब बोतल बंद पानी की तरह शुद्ध हवा भी बोतल में मिलिया करेगी। बस स्टैंड व रेलवे स्टेशन पर बेचने वाले  कुछ इस तरह से बेचते हुए नजर आएंगे। यह लीजिए मात्र दस रुपए में ताजा शुद्धतम एयर बोतल। हर छोटी-बड़ी दुकान पर पानी की बोतल के समीप एयर बोतल सजी संवरी हुई रखी रहेंगी। जिन्हें देखकर निर्धन भी खरीदे बगैर नहीं रहेगा। क्योंकि दमघोट वायु से राहत पाने के लिए उसे भी चौबीस घंटे एयर बोतल पास में रखनी पड़ेगी। साग सब्जी के भाव-ताव की भाँति ग्राहक कहेगा कि भैया सही-सही लगा लो। दो-तीन बोतल ले लेंगे। दुकानदार कहेगा कि भाई साहब इस पर आप सोच रहे है न जितनी बचत नहीं है। बस एक रुपए का मार्जिन है। चाहे तो आप मार्केट में ट्राई करके देख लीजिए। उसके बाद खरीद लीजिएगा।
एक यात्री दूसरे यात्री से कहेगा भाई साहब आपकी एयर बोतल दीजिए दम घुट रहा है। दूसरा कुछ इस तरह से कहेगा कि यह लीजिए,लेकिन पूरा मत लीजिएगा। मेरे लिए भी बचा कर रखिएगा। या फिर कहेगा सफर करने से पहले साथ लेकर क्यों नहीं चलते हो। तुम्हें मालूम नहीं है कि पानी बगैर रह सकते हैं। लेकिन एयर बोतल बगैर कदाचित नहीं रह सकते हैं।
जिस तरह से स्कूल जाने वाले छोटे बच्चे के बैग में परिजन पानी की बोतल रखना कभी नहीं भूलते हैं। उसी तरह से एयर बोतल भी रखना कभी नहीं भूलेंगे। अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने से पहले कहेंगे बेटा जब भी दम घुटने लगे तो बोतल में से एयर ले लेना। बोतल का ढक्कन नहीं खुले तो सर से खुलवा लेना। लेकिन एयर लिए बगैर मत रहना। स्कूल वाले भी दाखिले के दौरान अपनी उत्तम व्यवस्थाओं में एयर की व्यवस्था को सबसे पहले बताएंगे। हमारी स्कूल में शुद्धतम एयर कूलर हैं।
जिस तरह से धर्मार्थी सार्वजनिक स्थलों पर वाटर कूलर या प्याऊ लगाते हैं। उसी तरह से एयर कुलर लगाएंगे। इसके लिए लोग भामाशाहों से अनुरोध भी करेंगे। फलानी जगह शुद्ध एयर का अभाव है। एक  एयर कूलर लगा दीजिए। आपका भला होगा। यह सुनकर कोई नाम के लिए तो कोई सेवा भाव से लगाने के लिए आगे आएंगे। स्कूल-कॉलेजों के लिए अभिभावक जनप्रतिनिधियों से निवेदन करेंगे कि हमारे बच्चों का शुद्ध एयर के अभाव में उनका दम घुटता रहता है। सही ढंग से पढ़ाई ही नहीं कर पाते हैं। इस समस्या का शीघ्र समाधान नहीं हुआ तो बच्चे बीमार पड़ जाएंगे। लोग अधिकारियों को ज्ञापन देंगे। ज्ञापन में चेतावनी देंगे। इतने दिन में शुद्धतम एयर की व्यवस्था नहीं करवाए तो हम आंदोलन करेंगे। धरने पर बैठेंगे। 
चुनावी सीजन में शुद्धतम हवा का मुद्दा ही सुर्खियों में रहेगा। नेतागण शुद्धतम हवा की उत्तम व्यवस्था के लिए एक से बढ़कर एक वायदे करेंगे। कोई कहेगा इसकी आप बिल्कुल भी चिंता मत कीजिए,मैं जीत गया तो  एयर टंकी बना दूंगा। वहां से पाइपलाइन दबाकर घर-घर में पानी के नल की तरह एयर नल लगवा दूंगा। कोई कहेगा मैं एयर टैंकर की व्यवस्था करवा दूंगा। रोज आपके द्वार पर एयर टैंकर आ जाया करेगा और आप अपनी आवश्यकता अनुसार एयर ले लीजिएगा। यह मेरा आपसे वादा है। वोट मुझे ही दीजिएगा।
मोहनलाला मौर्य

12 Nov 2019

फिर बाहर निकलेगा नागिन डांस



चार माह की लंबी निद्रा के बाद देव जाग गए हैं। बैंड-बाजा और बारात का सीजन आरंभ हो गया है। अब रोज कर्णप्रिय शहनाई की गूंज,बैंड-बाजे की ध्वनि और कानफोड़ डीजे की आवाज हर गली-मोहल्ले में सुनाई देने लगेंगी। कई दिनों से लोगों के अंदर ही अंदर हिचकोले मार रहा नागिन डांस बाहर निकलेगा। आज मेरे यार की शादी है गाने पर दूल्हे का बाप भी नाचता नजर आएगा। छोटे-छोटे भाइयों के बड़े भैया गाने पर दूल्हे की बहिन-भाभी, देवरानी-जेठानी कमर में लचक होने बावजूद भी जमकर ठुमके लगाएंगी।
विविध पकवानों की महक से महकने वाले मैरिज गार्डनों में वीआईपी भी हाथ में प्लेट लेकर लाइन में लगे हुए दिखेंगे और डायबिटीज वालों के मुंह में भी गुलाब जामुन दिखेगी। घर पर अक्सर जिन पति-पत्नियों में अनबन होती रहती है, वे भी एक-दूसरे की प्लेट से व्यंजन का आदान-प्रदान करते दिखेंगे। पड़ोसन की साड़ी पहनकर आई वह महिला साड़ी पर पनीर गिरते ही लोगों को अपनी ओर किस तरह से आकर्षित करती हैं, उस तरह के दृश्य भी देखने को खूब मिलेंगे। आधा खाना पेट में, आधा प्लेट में छोड़कर चलने वाले भी जूतों की पॉलिश करके तैयार बैठे हैं।
दुल्हन की बहन का एटीट्यूड देखकर उस पर फिदा होने वाले पिटते भी दिखेंगे और दूल्हे के भाई को झूम शराबी झूम गाने पर थिरकते देखकर उसे शराबी समझने वाले खुद पव्वा पीकर औंधे मुंह पड़े दिखेंगे। फीता कटाई और जूता छुपाई की रस्म अदायगी के समय सालियों और दूल्हे के यार-दोस्तों के बीच होने वाली हंसी-ठिठोली में सत्तर साल के बुड्ढे भी शामिल हुए बगैर नहीं रहेंगे और ग्यारह हजार का नेग ग्यारह सौ नहीं हो जाए, तब तक जाएंगे नहीं। पर सुबह विदाई के समय नजर नहीं आएंगे। समधिनों के हाथों में गुलाल देखते ही जिस तरह से एकदम से बिजली गुल हो जाती है, ठीक उसी तरह से गुल हो जाएंगे। लेकिन गाड़ी में बैठते समय पीठ पर उड़ेल दिए जाने वाले गुलाल से वे भी नहीं बच पाएंगे। लगता है, देवता यही रंग देखने-दिखाने के लिए जागे हैं।
मोहनलाल मौर्य

3 Nov 2019

नियति नहीं,सिर्फ इत्तेफाक


बिल्लू दिल्ली जाने के लिए घर से बाहर निकला ही था कि बिल्ली ने रास्ता काट दिया। अपशगुन हो गया।अपशगुन हो गया तो अनहोनी का भय व्याप्त होना ही था। सो हो गया। जनाब जिन पैरों से बाहर निकला था,उन्हीं से वापस घर के अंदर हो लिया। अब इसमें बिल्ली का क्या दोष है। उसने जान-बूझकर रास्ता थोड़ी काटा था। उसके पीछे एक कुत्ता पड़ा था,जिससे अपनी जान बचाने के लिए उस गली से इस गली में भागकर आ रही थी। रास्ता पार करने के दौरान कोई सामने आ गया तो इसमें बिल्ली की क्या गलती है? बिल्‍लू इसको अपशगुन मान बैठा है।
अपशगुन के कारण जाना स्थगित था,मगर काम ही कुछ ऐसा था कि जाना अत्यंत आवश्यक था। सो दोबारा निकलना चाहा,लेकिन बिल्ली ने फिर से रास्ता काट दिया। इस बार भी उसका कसूर नहीं था। कुत्ता पैर धोकर उसके पीछे पड़ा था। उसे ऐसी सुरक्षित जगह मिल नहीं रही थी,जहाँ पर छिपने के बाद कुत्ते से पिंड छूट जाएं। इसलिए सिर पर पैर रखकरइस गली से उस गली में ही भाग रही थी। 
अभी तक बिल्लू नहीं तो आगे बढ़ा था, नहीं पीछे मुड़ा था। वहीं का वहीं खड़ा था और यह सब देख रहा था। पर बिल्ली की बिल्कुल भी मदद नहीं की। बल्कि,भौं-भौं करके कुत्ते को उकसाने लगा। बिल्ली भी सयानी थी,यह चाल भाँप गई थी। भागकर पोल पर चढ़ गई। चढ़ते ही उसे एक बार तो ऐसे लगा,जैसे कि गढ़ जीत लिया हो। पर जब नीचे देखी,तो होश उड़ गए। कुत्ता नीचे ही खड़ा था। 
बिल्ली,बिल्लू को कोसने लगी और मन ही मन सोचने लगी-मैंने ही थोड़ी रास्ता काटा था। इस कुत्ते ने भी तो काटा था। इसका रास्ता काटना अपशगुन क्यों नहीं? जबकि इसमें और मुझमें कोई खास अंतर नहीं है। इसके भी वही चार पैर हैं,जो मेरे हैं। वहीं आँख और कान है। यह भौंकता हैं और हम म्याऊं करते हैं। बस इसमें और मुझमें यही तो अंतर है। बाकी तो सब समान है,फिर हमारे साथ ही दुर्व्यवहार क्योंयह तो अन्याय हो रहा है। नीचे उतरने के बाद मुझे ही बिल्लियों को एकजुट करके इसके खिलाफ आवाज उठानी होगी। पर यहाँ से यह कुत्ता नहीं गया तो मेरा क्या होगा। कब तक खंभे के चिपकी रहूंगी? यह तो शुक्र है कि उस समय बिजली गुल थी। अन्यथा बिल्ली चिपकी की चिपकी ही रह जाती। कुत्ता यह सोचकर भौं-भौं करके भौंकने लगा कि डरकर नीचे उतर आएगी। पर काफी देर भौंकने के बाद भी नीचे नहीं उतरी तो मन मसोसकर चल दिया। यह  देखकर बिल्ली तत्काल नीचे उतर आई। 
लेकिन जो मन में सोचा था, वह तो नीचे उतरते ही भूल गई। क्योंकि उसे भूख लग गई थी। भूख के समय भोजन के अलावा कुछ भी याद नहीं रहता है। बिल्ली भोजन की तलाश में उस घर में घुस गई, जिसमें दूध का ग्लास रखा था। मगर उसके नसीब में दूध नहीं लिखा था। उस घर की मालकिन ने दूध के ग्लास के पास पहुँचने से पहले ही उसे जूता फेंक कर मारा। डरकर बेचारी भाग रही थीकि एक सज्जन आ गए। बिल्ली ने उसका रास्ता काट दिया। किसी का भी रास्ता काटना बिल्ली की नियति नहीं,सिर्फ इत्तेफाक है।

31 Oct 2019

दिवाली पर चलता स्वच्छता अभियान



इन दिनों घर-घर में दिवाली स्वच्छता अभियान से चल रहा है। अभियान के तहत उड़ने वाले धूल मिट्टी के गुब्बारे गगन को छूने के बजाय नाक में घुसकर छींक को बाहर निकाल रहे हैं। छींक है कि बाहर निकलकर धूल मिट्टी पर हमला बोल रही है। उड़नपरी धूल-मिट्टी और छींक के बीच में घमासान युद्ध को देखकर झाड़ू बहुत प्रफुल्लित होता है। क्योंकि उसे जिन हाथों ने पकड़ रखा है,वो हाथ उसे छोड़कर नासिका को पकड़ लेते हैं। हाथ से उन्मुक्त होकर झाड़ू जब नीचे गिरता है, तब उसे बहुत मजा आता है। क्योंकि दिन भर इस दीवार से उस दीवार पर चलने के कारण इतना थक जाता है कि पूरी रात करहाता रहता है। छींक है कि इसको पल दो पल का आराम करवा देती है। इसलिए यह छींक की तरफदारी करता रहता है और धूल मिट्टी के गुब्बारों को खदेड़ने में रहता है।  
अभियान के तहत झाड़ू से मकड़जाल पर हमला किया जा रहा है। बहादुर मकड़िया जाले से कूदकर फर्श पर गिर रही है और अपनी जान बचाने में कामयाब हो रही है। कमजोर जाले के ही चिपककर जान गवाह रही हैं और चतुर देखते-देखते ही न जाने कहां पर ओझल हो जाती हैं। शायद उन्हें पता होता है कि दिवाली पर्व के आसपास कभी भी हमला हो सकता है। इसलिए इन दिनों वो अहर्निश सजग रहती हैं। झाड़ू स्पर्श होते ही भाग निकलती हैं। जो उसी समय झाड़ू के लिपटे जाले को निकालने में मशगूल हो जाता है। उसके घर की मकड़िया तो कभी भी नहीं मरती है। वहीं पर बिंदास रहती और सफाई के दूसरे दिन ही फिर से अपना मकड़जाल बनाना आरंभ कर देती हैं।
इस अभियान में कई छिपकलियों के झाड़ू लगने से उनकी पूंछ टूट जाती है और टूटकर नागिन डांस करने लगती हैं। जिसे देखकर वो कीड़े-मकोड़े बहुत प्रसन्न होते हैं। जो कटी पूंछ की छिपकली के मुंह में आने से बाल-बाल बच गए थे। मगर कीड़े मकोड़ों पर हमला देखकर छिपकली बिल्कुल भी प्रफुल्लित नहीं होती हैं। क्योंकि उसका कई दिनों का भोजन एक ही दिन में साफ-सफाई की भेंट चढ़ जाता है। 
जो कॉकरोच को देखते ही डर जाता है। उसके घर के कॉकरोच अपने ऊपर झाड़ू पड़ते ही झाड़ू में ही घुस जाते हैं। जब तक झाड़ू को दो-तीन बार फटकारे नहीं। तब तक बाहर नहीं निकलते है। निकलने के बाद सीधे उस तरफ भागते हैं,जहां पर रद्दी पड़ी होती है। रद्दी में घुसने के बाद रद्दी बिकने पर ही बाहर निकलते हैं।जिनके घर में चूहों ने हमला बोल रखा है। दिवाली के समय उन पर शामत आ जाती है। घर की साफ सफाई के साथ-साथ उनका भी सफाया हो जाता है। इनमें भी जो उस्ताद होता है। वह तो चकमा देकर घर के ही किसी ओने-कोने में छिप जाता है और जो भोला भाला होता है,वह बेचारा बेमौत मारा जाता है। 

18 Oct 2019

मोहनलाल मौर्य बानसूर गौरव रत्न अवार्ड से सम्मानित


अलवर। जिले के बानसूर तहसील में स्थित युवा जागृति संस्थान की 9 वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य पर 17 अक्‍टुबर गुरूवार को गांव चतरपुरा निवासी युवा व्यंग्यकार मोहनलाल मौर्य को  बानसूर गौरव रत्न अवार्ड 2019 देकर सम्मानित किया। युवा जागृति संस्थान के सचिव गोकुल चंद सैनी ने बताया कि मौर्य को यह अवार्ड साहित्य सृजन में सर्वश्रेष्ठ कार्य करने पर कार्यक्रम में मुख्य अतिथि विकास अधिकारी मदन लाल बैरवा,विशिष्ट अतिथि  डीडीएम नाबार्ड अलवर प्रदीप चौधरी,सीडीपीओ मेघा चौधरी,डिपो प्रबंधक आबकारी अलवर विजेंद्र यादव,वाणिज्य कर अधिकारी शाहजहांपुर महेंद्र यादव,प्रबंधक एयू बैंक बानसूर इंद्रजीत सिंह,डॉ अरविंद वर्मा पशुपालन विशेषज्ञ कृषि विज्ञान केंद्र बानसूर,सहायक कृषि अधिकारी,सुरेश यादवआईसीआईसी बैंक रीजनल सेल्स हेड अलवर दीपू यादव,  मैनेजर टेक्नोलॉजी सीएससी एसपीवी दिल्ली ओमवीर चौधरी,अध्यक्ष युवा जागृति संस्थान कुंदन लाल शर्मा के द्वारा प्रदान किया गया। इन्हें गत दिनों अखिल भारतीय रैगर महासभा जिला शाखा कार्यकारणी अलवर के द्वारा प्रशस्ति पत्र एवं बाबा साहब बी आर अंबेडकर का प्रतीक चिह्न देकर सम्मानित किया गया था। मौर्य की आएदिन देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं।













8 Oct 2019

अच्छाई


देखते ही देखते तू-तू मैं-मैं से हुई तकरार हाथापाई पर उतर आई। बीच-बचाव में गए सज्जन गाली-गलौज की गोलियों से घायल होकर वापस लौट आए। पर बुराई बाई और अच्छाई ताई की ओर से गालियों की गोलाबारी शांत नहीं हुई। बल्कि हावी होती गई और लड़ती-झगड़ती बीच सड़क पर आ गई। तमाशबीन भीड़ छुड़ाने के बजाय खड़ी-खड़ी तमाशा देखने में मशगूल थी। मैं बीच-बचाव में इसलिए नहीं कूदा कि औरतों की लड़ाई हैं। कहीं भारी नहीं पड़ जाए। कोर्ट-कचहरी के चक्कर नहीं काटने पड़ जाए। पर वहाँ पर औरतें भी काफी थी। जिनमें से छुड़ाने के लिए एक भी आगे नहीं आ रही थी।
कई भाई लोग तो अपने मोबाइल से इस तरह वीडियो बना रहे थे। जैसे कि किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे हो। मैंने एक भाई साहब से पूछा भी आप वीडियो क्यों बना रहे हैंभाई साहब ने पहले तो मेरी ओर घूर कर देखा और फिर बोला,'आपको क्या आपत्ति है?' 'मुझे कोई आपत्ति नहीं है पर किसी का इस तरह वीडियो बनाना अच्छी बात नहीं है।यह सुनकर वह बोला, 'मैं ही अकेला थोड़ी बना रहा हूँ और भी तो बना रहे हैं। इसलिए मैं भी बना रहा हूँ।मैंने उससे पूछा,'बनाकर क्या करोगे?'वह तपाक से बोला,'सोशल मीडिया पर वायरल करूंगा। तुम इतने सवाल-जवाब क्यों कर रहे होयह दोनों क्या तुम्हारी सगी संबंधी हैं। 'मैंने कहा, 'नहीं हैं।तो फिर साइड हटो। और मैं साइड में हो गया।
तमाशबीन भीड़ में से मुट्ठी भर लोग यह जरूर पूछ रहे थे कि दोनों के बीच हुज्जत हुई कैसेभीड़ में से पता चला कि अच्छाई ताई ने बुराई बाई को यह कह दिया था कि आज रावण दहन के पुतले के साथ बुराई भी जलकर खाक हो जाएगी। बस यह सुनकर ही बुराई बाई आग बबूला हो गई और गालियों की झड़ी लगा दी। काफी देर तक तो अच्छाई ताई सुनती रही। जब नहीं-नहीं मानी तो चोटी पकड़कर दो-चार थप्‍पड़ रसीद कर दी। फिर क्‍या थादोनों में गुत्‍थमगुत्‍थी हो गई और लड़ती-झगड़ती घर से सड़क तक आ गई। 
बुराई बाई अच्छाई ताई को जो मुँह में आया वही बकी जा  रही थी। तू अच्छाई ही होकर भी क्या कर पाईमुझे देख मैं चुटकियों में असंभव को भी संभव कर देती हूँ। तू क्या समझती है रावण के पुतले के साथ जलकर खाक हो जाती हूँ। यह तेरा भ्रम है और मेरी कलाकारी हैजो कि मैं तुम जैसे लोगों की आँखों में धूल झोंककर साइड से निकल जाती हूँ। मैं वह बुराई हूँ जो कभी खत्म नहीं होने वाली। एक बार तू मुझे छोड़फिर बताती हूँमैं क्या बला हूँ। अच्छाई ताई उसका हाथ मरोड़ती हुई बोली,'तू चाहे जो भी बला हो। मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। आज मैं तुझे तेरी औकात बताकर ही रहूंगी। यह तो शुक्र है कि वक्त पर एक ओर से अच्छाई ताई की बहन 'भलाईआ गई और दूसरी ओर से बुराई बाई का भाई 'बुराआ गया था। जिन्होंने आते ही दोनों को अलग-अलग कर दिया। अन्यथा तमाशबीन भीड़ के भरोसे तो न जाने क्या अनर्थ हो जाता। बुरा भाई बुराई बाई को धमकाते हुए बोला,' तेरे अंदर थोड़ी बहुत भी लाज शर्म है या नहीं। इतनी बड़ी बूढ़ी के साथ हाथापाई पर उतर गई। तुझे पता भी है आखिरकार जीत अच्छाई की होती है और अच्छाई ताई अच्छाई के सब गुण विद्यमान है। चल घर पर तेरी खबर लेता हूँ।

7 Oct 2019

शिक्षा से ही होगा समाज का उत्थान

थानागाजी। अखिल भारतीय रैगर महासभा जिला कार्यकारिणी अलवर के तत्वावधान में रविवार को नवम प्रतिभावान सम्मान समारोह कस्बे के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में डॉ एस के मोहनपुरिया की अध्यक्षता में आयोजित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ एस के मोहनपुरिया ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करते हुए अपने बालक बालिकाओं को अच्छी शिक्षा दिलाकर समाज को गौरवान्वित करें। कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि स्थानीय विधायक कांति प्रसाद मीणा ने कहा कि समाज पढ़लिख कर आगे बढ़े और उन्नति की ऊंचाइयों को छुए। कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि पंचायत समिति सदस्य राजेंद्र प्रसाद रैगर, प्रदेश अध्यक्ष अखिल भारतीय रैगर महासभा जेपी महोलिया, युवाप्रकोष्ठ प्रदेश अध्यक्ष नीरज कुमार तोनगरिया, जिलाध्यक्ष जयपुर ग्रामीण गुलाबचंद बारोलिया, सेवानिवृत्त शिक्षा उपनिदेशक ज्ञानचंद मौर्य, प्रोफेसर पदमचंद मौर्य, अखिल भारतीय रैगर महासभा के राष्ट्रीय सचिव सुखदेव अटल, पूर्व जिला अध्यक्ष तोताराम मौर्य, गोपीराम जाजोरिया, अखिल भारतीय रैगर महासभा के राष्ट्रीय प्रचार प्रसार सचिव यादराम नोगिया, समाजसेवी कुशालचंद जाजोरिया थे। कार्यक्रम की शुरुआत बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर जी केे समक्ष दीप प्रज्वलित करके किया। इस अवसर पर समाज के 10वीं 12वीं में न्यूनतम  70% स्नातक एवं स्नातकोत्तर में न्यूनतम 60% नीट आईआईटी एमबीबीएस जेआरएफ एवं अन्य्य विशिष्ट उपलब्धियों वाले  व्यक्तियों को प्रशंसा प्रमाण पत्र एवं बाबा साहब की स्मृृति चिह्न देकर सम्मानित किया। कार्यक्रम का समापन जिला अध्यक्ष रामजीलाल जाजोरिया ने धन्यवाद ज्ञापित करके किया।  इस मौके पर प्रधानाचार्य कुम्हेरलाल मौर्य, सरदार सिंह, व्याख्याता रामप्रताप खोरवाल, सेवानिवृत्त क्षेत्रीय वन अधिकारी धूणीलाल रातावाल, सेडू राम मौर्य, पत्रकार मोहनलाल मौर्य, मोहन लाल सांटोलिया,सुश्रुत धूडिया, दिनेश कुमार खोलिया, इंद्राज तोनगरिया सहित समाज के गणमान्य लोग मौजूद थे। कार्यक्रम का मंच संचालन व्याख्याता पूरणमल रातावाल ने किया।

















6 Oct 2019

छपने की प्रक्रिया


जब भी मैं किसी प्रतिष्ठित अखबार में छपता हूँ,तो छपने की प्रक्रिया के बारे कोई न कोई तो पूछ ही लेता है। साहित्यिक पैसेंजर,फेसबुक मैसेंजर और  व्हाट्सएप के जरिए हाय-हैलो करके पूछे बगैर नहीं रहते हैं। इनके पूछने का सलीका भी अलहदा होता है। सीधे-सीधे न पूछकर घुमा-फिराकर पूछते हैं। पहले प्रकाशित होने की बधाई देंगे,फिर प्रशंसा स्वरूप दो लाइन लिखकर आदरणीय, श्रीमान जी, सर जी, भाई साहब, मित्र, आदि इत्यादि सम्मानसूचक शब्दों से संबोधित करके पूछेंगे कि छपने की प्रक्रिया क्या है, जरा हमें भी बताइए! आभारी रहेंगे आपके।

दरअसल,मुझे खुद पता नहीं है। इनको क्या बताऊं,मगर इनको जब तक नहीं बताऊंगा, तब तक यह जोड़े हुए हाथ का ‘इमोजी’ भेजते रहते हैं,जिन्‍हें देखकर पत्थर दिल भी मोम की तरह पिघलकर तत्काल बता देगा कि भई,यह प्रक्रिया है। पर मैं क्या बताऊं और क्या नहीं बताऊं? मैं अक्‍सर  इस दुविधा में पड़ जाता हूँ। पड़ने के बाद बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। यह कोई गली व मोहल्ले का रास्ता तो पूछ नहीं रहे होते हैं,जो कि बता दूं कि यह तो शॉर्टकट पड़ेगा और यह वाला लंबा पड़ेगा। रास्‍ता न मालूम होने पर बोल भी दूं कि किसी अन्य से पूछ लीजिए या फिर गूगल मैप पर देख लीजिए। वो फिर थैंक यू बोलकर चले जाएंगे।
छपने के बारे मैं यही बताता हूँ कि सबसे पहले दिमाग में विषय लाना होता है। समसामयिक विषय आसानी से मिल जाता है। बस सोशल मीडिया पर अपडेट रहना पड़ता है। कालजयी विषय के लिए दिमाग के घोड़े बहुत दूर तक दौड़ाने पड़ते हैं। गहराई में उतरना पड़ता है,पढ़ना पड़ता है। उसके बाद में चिंतन करना होता है। चिंतन के दौरान जो विचार आते हैं, उन्हें लिपिबद्ध करना पड़ता है। पर आजकल लिपिबद्ध कौन करता हैसब टाइपबद्ध करते हैं। मेरा जैसा तो टाइपबद्ध भी नहीं करता है। मोबाइल में वॉइस के जरिए ही बद्ध कर लेता है। इसके बाद में संपादक जी की ईमेल आईडी पर प्रेषित कर दिया जाता है। छापना और न छापना तो संपादक जी पर निर्भर करता है। लेकिन यह प्रक्रिया बताता हूँ तो लोग यकीन ही नहीं करते हैं। पढ़कर तुरंत लिखते हैं कि यह तो हम भी जानते हैं। यही प्रक्रिया अपनाते हैं। उसके बावजूद भी छप नहीं पाते हैं। नहीं छपने का मलाल नहीं है,लेकिन जो छपने की प्रक्रिया है,उसे जानने की उत्कंठा है। या तो आप सही नहीं बता रहे हैं या जान-बूझकर मजे ले रहे हैं। हो सकता है,आपकी छपने की प्रक्रिया भिन्न हो। जब  इनको यह बताता हूँ कि न तो मेरी प्रक्रिया भिन्न है, न ही मैं मजे ले रहा हूँ। सच बता रहा हूँ, मेरी तो यही प्रक्रिया है, तब भी लोग विश्वास नहीं करते हैं। हद से ज्यादा हंसता हुआ हंसने वाला इमोजी भेजकर लिखते हैं कि अन्यथा मत लीजिए। सही-सही बताइए,श्रीमान जी, कहीं संपादक से तो सांठगांठ नहीं है। यह पढ़कर अन्यथा लेने का मन तो करता है। पर लेकर करूं क्या? मेरे किसी काम की नहीं है। जो कामकाज की नहीं, उसे गंभीरता से लेना भी बेवकूफी है। इसलिए नजरअंदाज करते हुए लिखता हूँ कि रचना सांठगांठ से नहीं,सर्वश्रेष्ठ होती है तब छपती है। अन्यथा संपादक जी खास रिश्तेदार ही क्यों न हो,उसकी भी नहीं छपती है। क्योंकि संपादक के अंदर के संपादकीय का संबंध सिर्फ और सिर्फ सर्वश्रेष्ठ रचना से ही होता है।
यह पढ़कर भी उन्हें आत्मसंतुष्टि तो होती नहीं हैं, पर संतुष्टि का ढोंग करते हुए पुष्प वाली इमोजी के साथ हृदयतल से आभार लिख भेजते हैं। ऐसे लोग ईमेल आईडी पूछे बगैर नहीं रहते हैं। जब आईडी मिलने के बाद भी नहीं छपते हैं तो मुझ जैसे किसी दूसरे-तीसरे से कंफर्म करते हैं कि दी गई थी आईडी सही है या गलत। 

30 Aug 2019

बधाई ही बधाई


आजादी दिवस पर देशभक्तों की देश भक्ति जितनी सोशल मीडिया पर दिखी,उतनी धरातल पर नहीं दिखी। शायद ही कोई ऐसी फेसबुक वॉल बची होगी,जिस पर तिरंगा नहीं लहराया हो। यहां पर लहराते तिरंगे को भले ही सलामी का सौभाग्य नहीं मिला हो,पर लाइक भरमार मिले हैं। जय हिंद की गूंज से कईयों की फेसबुक वॉल के कमेंट बॉक्स मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हुए दिख रहे थे। मेरे व्हाट्सएप पर व्हाट्सएप ग्रुप तो आजादी के जश्न में इतने मग्न थे कि दिनभर आने वाले गुड मॉर्निंग जैसे महत्वपूर्ण मैसेज को भी नहीं देख पाए। देश भक्ति से मेरे फोन की इमेज गैलरी खचाखच भर गई थी। किसकी डिजिटल देशभक्ति को डिलीट करूं और किसकी को नहीं। इस दुविधा में मैं तो शाम को डेयरी से दूध लाना भी भूल गया था।
स्कूल व कॉलेजों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों को  देखने वाले प्रत्यक्षदर्शी उतने नहीं दिखे,जितने फेसबुक पर लाइव देखने वाले दिख रहे थे। यह तालियों की जगह लाइक और कमेंट करके बालक बालिकाओं का हौसला अफजाई तो कर रहे थे। मगर मंच तक इनकी हौसला अफजाई पहुंच नहीं पा रही थी। जो लाइव दिखा रहा था वही ग्रहण करके पुलकित हो रहा था। कई तो अपनी फेसबुक वॉल को ही लाल किले की प्राचीर समझकर देशवासियों को संबोधित कर रहे थे। जबकि इनका संबोधन कोई सुन ही नहीं रहा था। बस लाइक करके आगे निकल रहे थे।
फेसबुक पर रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में शुभकामना देने वाली पोस्टर पोस्ट तो बहुतायत दिखी। मगर समस्त देशवासियों को शुभकामनाएं देने वाली पोस्ट उतनी नहीं दिखी,जितनी क्षेत्रवासियों को देने वाली दिखी। इन क्षेत्रवासियों की पोस्ट को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि शुभकामना पर भी जीएसटी लगी हो। जिसके कारण यह समस्त देशवासियों के बजाय अपने ग्रामवासियों तथा शहरवासियों तक ही सीमित रहे हो। 
लेकिन इन क्षेत्रवासियों में कईयों की शुभकामनाएं यूं ही नहीं दी गई है। अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दी गई है। इनमें से कोई चुनाव लड़ने का इच्छुक है तो कोई लड़ चुका है। इसलिए यह लोग इस तरह की शुभकामनाओं के जरिए अपने आप को जनता के समक्ष पेश करते हैं कि आगामी चुनाव में हम भी मैदान में होंगे। हमारा भी ध्यान रखिएगा। यह पोस्ट पर कमेंट्स की बढ़ोतरी देखकर उसी तरह मन ही मन प्रमुदित होते रहते हैं। जिस तरह मतगणना के समय मतों की बढ़ोतरी देखकर नेतागण होते हैं। हर दस मिनट बाद में फेसबुक नोटिफिकेशन देखते रहते हैं। दिल वाली आकृति की इमोजी से लाइक करके रिप्लाई देते हैं।

18 Aug 2019

नाम में कुछ नहीं रखा


कई दिनों से अपने नाम को लेकर हैरान हूँ। हैरान इसलिए हूँ कि एक दिन एक मित्र ने यह कह दिया-अपना नाम बदल लीजिए। मैंने उससे पूछा, 'नाम बदलने से क्या होगा?' उसने जवाब दिया,'एक बार बदलकर तो देखिए। फिर देखना होता क्या है?' दरअसल उसने ही बताया कि आपका नाम यानी की मेरा नाम मेरे मुताबिक जम नहीं रहा है। मैंने सुना है कि मित्र का मंतव्य ही गंतव्य तक पहुंचाता है। इसलिए मैंने अपना नाम बदल लिया। बदले नाम से एकाध रचना भी प्रकाशित करवा ली। मन में उत्कंठा उत्पन्न हुई कि,जो मूल नाम से यश-कीर्ति प्राप्त नहीं हुई,हो सकता है परिवर्तन नाम से हो जाए। यहीं सोचकर मैंने अपने नाम में से मध्यम हटा दिया। प्रथम और अंतिम रख लिया। सम्पूर्ण परिवर्तन तो कर नहीं सकता। सम्पूर्ण परिवर्तन करने का अभिप्राय है अपना जो अस्तित्व है उसे विलुप्त करना।

सुना है कि नाम की बड़ी महत्ता होती है। यह अलग बात है कि कईयों कि नाम के विपरीत मनोदशा होती है। जैसे कि नाम तो रोशन लाल है,पर रहता बेचारा अँधेरे में है। इसी तरह नाम तो शमशेर बहादुर सिंह है,पर मरे ना चूहा भी। कद का ठिगना है,पर नाम लम्बरदार है। रंग का काला है,पर नाम सुन्दर और रंग का गोरा है,पर नाम कालू है। देह दुबली पतली है और नाम मोटूराम है। अष्ट-पुष्ट,लम्बी-चौड़ी कद-काठी है,पर नाम छोटूराम। कई होते तो मर्द हैं,पर उनके नाम में औरत का नाम पहले आता हैं। जैसे कि दुर्गाप्रसाद,लक्ष्मी नारायण,सीताराम,आदि-इत्यादि। कईयों के नाम बड़े-अटपटे होते हैं,पर उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है और कईयों के नाम भगवान के नाम पर होते हैं,फिर भी उन्हें आधे-अधूरे नाम से सम्बोधित किया जाता है। मसलन,नाम तो है ‘हनुमान’ और बुलाते है ‘हड़मान

मैंने अपना नाम परिवर्तन क्या कियाअड़ोसी-पड़ोसी आपत्ति जताने लगे। जबकि नाम मैंने परिवर्तन किया है और आपत्ति वे जता रहे हैं। पड़ोसी गंगाराम ने बताया कि भाई नाम परिवर्तन से कुछ नहीं होता। नाम तो काम से होगा। नाम तो मुंबई,कोलकाता,चेन्नई,वाराणसी,सहित कई शहरों के भी बदले गए है। लेकिन हुआ क्याक्या वे शहर इधर से उधर हो गएयहाँ फिर उनके पंख लग गए,जिधर मन किया उधर की उड़ चले। वे वहीं स्थित हैं,जहाँ थे। पड़सोसियों कि ओर से इस तरह के सुझाव सुनकर मैं असमंजस में हूँ। इस सोच में डूबा हुआ हूँ कि मित्र ने भी कुछ ना कुछ उधेड़बुन कर ही ऐसी राय दी होगी। अन्यथा आज के युग में भला ऐसी  राय कौन देता है?

एक पड़ोसी ने तो यह तक कह दिया,'भाई! नाम अमर रखने से कोई अमर नहीं हो जाता। उसे भी मरना तो पड़ता ही है। लक्ष्मी नाम है तो इसका मतलब यह थोड़ी है कि कुबेर का खजाना उसी के पास है। नाम सत्यराम है तो यह जरूरी थोड़ी है कि वह झूठ नहीं बोलेंगा। इसी तरह नाम दया है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे क्रोध नहीं आएंगा। भाई नाम तो नाम होता है। नाम चाहे बड़ा हो। चाहे छोटा हो। उसके काम के अनुरूप ही उसका नाम बड़ा होता है।'

इत्ती सी बात मेरे समझ में कैसे नहीं आयी और पड़ोसी ने कतिपय नामों के जरिए ही समझा दिया। लेकिन एक बात अब भी समझ में नहीं आयी। मित्र ने नाम परिवर्तन का सुझाव क्यों दियाखैर छोड़िएकई दिनों से जो उलझन बनी हुई थी वह सुलझ गई और नाम की महत्ता का भी ज्ञान हो गया।

2 Aug 2019

खूँटी का खोट


घर के स्टोर रूम में रखा छाता अपने ऊपर बने मकड़ी जाल को हटाकर और धूल मिट्टी को झाड़कर,बारिश से नाता जोड़ने के लिए,बरामदा की खूँटी पर आकर लटक गया है। कई दिनों से अकेलापन महसूस कर रही खूँटी भी छाता के टँगने के बाद फूली नहीं समा रही है। इसे पता है कि छाता बारिश में भीगकर आएगा तो मेरे ऊपर भी कुछ बूँदें तो मेहरबान होंगी। मैं भी बारिश के पानी से स्नान कर ही लूंगी। बारिश में नहाने का मन भला किसका नहीं होता है। हर किसी की इच्छा होती है कि झमाझम बारिश हो तो मैं भी स्नान करूं। स्नान का फेसबुक पर लाइव टेलीकास्ट करूं। अपने एफबी मित्रों को बूँद- बूँद का चित्र दिखाकर,उन्हें जोड़े रखू।
खूँटी पर लटका हुआ छाता भी कुछ इसी तरह के सपने संजोए हुए बादलों को निहार रहा है। बादल है कि कभी बन रहे हैं तो कभी बिगड़ रहे हैं। मगर झगड़ नहीं रहे हैं। मनुष्य की तरह एक-दूसरे की टाँग नहीं खींच रहे हैं। बल्कि हाथ पकड़कर साथ ले चल रहे हैं। जो पीछे रह रहा है उसे आगे वाला अपना हाथ आगे बढ़ाकर अपने साथ कर लेता है। बादलों का इतना आपसी प्यार देखकर छाता भी खूँटी से प्यार का इजहार करने लगता है। लेकिन खूँटी है कि आज तक किसी एक की हुई ही नहीं। कोई भी उसके संग दो-चार दिन से ज्यादा दिन तक टिकता नहीं है। चाहे राशन से भरा थेला हो या परिधान हो या फिर लटकने वाली अन्यत्र कोई भी वस्तु हो। इसमें खूँटी का भी खोट नहीं है। इसके प्यार का तो मनुष्य दुश्मन है,जो कि इस पर टंगी वस्तु से आँखें चार होते ही उसे इस पर से उतारकर अलहदा कर देता है। जबकि मनुष्य अपनी शर्म तक को खूँटी पर टांगते हुए नहीं शर्माता है। मगर जब खूँटी को शर्म से इश्क हो जाता है। तब खुद इतना बेशर्म हो जाता है कि शर्मिंदगी भी शर्म से पानी-पानी हो जाती है। 
छाता भी भली-भाँति जानता है कि बारिश हुई तब भी और नहीं हुई तब भी खूँटी के संग तो जिंदगी व्यतीत करना नामुमकिन है। मगर जब तक हैं,तब तक बादलों की तरह मिलजुलकर रहना चाहिए। जो गरजते भी साथ में हैं और बरसते भी साथ में है। एक हम हैं,जो कि गरजते साथ में है तो बरसते नहीं और बरसते हैं तो गरजते नहीं।
हर छाता खुद भीगकर अपने मालिक को बारिश से बचाकर उसके गंतव्य तक पहुँचाने में ही अपना जीवन सार्थक समझता है। मगर यह सौभाग्य भी हर किसी छाते को नसीब नहीं होता है। कई रंग-बिरंगे छाते तो बेचारे धूप में जलकर इतने काले पड़ जाते हैं कि आईने में अपनी शक्ल देखकर,अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। 
आज भी कई छातों की आत्मा इसलिए भटक रही है की उन्हें उनकी छोटी सी उम्र में बारिश का वह सुख प्राप्त नहीं हुआ जिसके लिए उनका जन्म हुआ था। इनकी आत्मशांति के लिए इनके वारिस मनुष्य के सिर के ऊपर सीना तानकर तने रहते हैं। दिनभर चिलचिलाती धूप में जलते रहते हैं,मगर बारिश को कभी भी नहीं कोसते। बल्कि बरसने के लिए,गुहार लगाने में लगे रहते हैं। फिर भी बारिश का दिल नहीं पसीजता है। हम पर नहीं तो कम से कम इन पर तो मेहरबान हो जाए। ताकि यह अपने पूर्वजों की अंतिम इच्छा के पुण्य से कृतार्थ हो जाए।
खूँटी पर लटका छाता अपने मालिक के हाथों का स्पर्श पाने के लिएखुद फर्श पर नीचे आ गिरा। ताकि मालिक भागकर आए और उठाकर कई दिनों से बंद पड़े को खोलकर दुनियादारी से परिचित करवाएगा। लेकिन सोचा जैसा हुआ नहीं। मालिक ने उसे उठाकर वापस खूँटी पर टाँग दिया। यह देखकर छाता ताकता ही रह गया। कहने सुनने की तो उसके मुँह में जबान नहीं थी।

31 Jul 2019

सावन की आई बहार रे...


चंद्रयान-2 चांद के समीप है, झूठ सुर्खियों में है। देश के कई इलाकों के नदी और नाले उफान पर हैं। घर-दालान में सीलन आ चुकी है। कल तक जहां पर पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी,अब वहां पर तबाही मची हुई है। उनके गगन तले की धरा जलमग्न हैं। पर्वत हरीतिमा की चुनरी ओढ़कर प्रमुदित हैं। जिन्हें देखकर,उनके संग सेल्फी लिए बिना रहा नहीं जा रहा हैं। क्‍योंकि सोशल मीडिया पर भी सावन की बहार छाई हुई है, जिसे फॉरवर्ड किए बिना रहा नहीं जा रहा है।
रोज-रोज हो रही बारिश से कोई खुशहाल है, तो कोई परेशान है। मगर छिपकलियों के सोने पर सुहागा है। कीड़े-मकोड़ों को धप से पकड़ने के लिए बिल्कुल भी मशक्कत नहीं करनी पड़ रही है। खुद ही मुंह में आ रहे हैं। मेंढक टर्र-टर्र करते हुए बिना बुलाए घरों में प्रवेश कर रहें हैं और जहां मर्जी वही घुस रहे हैं। बेडरूम तक पहुंच जाते हैं। पर वे इतने ईमानदार हैं कि किसी की सुई भी नहीं चुराते हैं। बस घर का मौका मुआयना करके फूदते हुए बाहर निकल जाते हैं। बारिश में जो माटी के चूल्हे जलने में आना-कानी करने लगे हैं,उन्हें मिट्टी के तेल से ललचाया जा रहा है। जो लोभ में आ रहा है। वह चैन पा रहा है। जो तेल पीकर भी आंख दिखा रहा है,  वह चिमटे खा रहा है। इनके लिए भी सावन मनभावन होता है। मगर जलना ही इनकी नियति।
इन दिनों सखी सहेलियां पहेलियां न बुझाकर झूला झूलने में मस्त मगन हैं। क्योंकि सावन के झूलों में न झोल है,न पोल है। मीठे बोल हैं। जिन्हें सुनकर ठिठक सकते हैं। लेकिन भटक नहीं सकते। सावन में मटकना जो रहता है। मेरा भी मन मयूर की तरह नाचने के लिए मचल रहा है। लेकिन सोशल मीडिया पर छाई बहार बाहर ही निकलने नहीं दे रही है। व्हाट्सएप से बाहर निकलता हूं,तो फेसबुक के नोटिफिकेशन बुला लेते हैं। उसके बाद कुछ याद रहता है भला? क्योंकि यही आजकल रमणीय एवं भ्रमणीय स्थल है। यहां से कभी याद करके बाहर आ भी गया,  तो इंस्टाग्राम का प्रोग्राम तैयार रहता है। फिर टि्वटर वाली नीली चिड़िया चहचहाने लगती है। अब अगर उसकी चहचहाहट नहीं सूनी,तो अपने नेताओं और अभिनेताओं के सुविचारों से महरूम रह जाऊं। इसलिए इसकी सबसे पहले सुननी पड़ती है।

28 Jul 2019

समय से पहले आने का नजरिया


यहाँ समय से पहले आने वाले को कौहतूल भरी निगाहों से निहारते हैं। जब तक पहले आने का कारण नहीं जान लेंगे। तब तक अपनी निगाहें नहीं हटाते हैं। हाथ भी तब मिलाते हैं,जब तसल्ली हो जाती है कि समय से पहले आने का कोई खास उद्देश्य नहीं है। समय था तो समय से पहले चले आए। मगर जिनके चले आए हैं,उनके पास तो समय से पहले आने का समय है ही नहीं। उनके पास तो जो समय दिया गया था,वह भी बड़ी मुश्किल से एडजस्ट किया है। इसलिए उन्हें समय से पहले आना अजीब लगता है। फिर वो करीबी से भी बात अजीबोगरीब ही करते हैं। 
घर पर मेहमान समय से पहले आ जाए,तो बवाल हो जाता है। कल आने वाला एक दिन पहले कहाँ से आ टपका! एक दिन पहले आना इतना अटपटा लगता है,जैसे दूधवाला महीने से पहले दूध के पैसे माँगने आ गया हो। हॉकर महीना बीता नहीं और पैसा लेने के लिए चला आए तो लोग उससे अखबार लेना बंद कर देते हैं। इसलिए बेचारा कभी भी भूलकर महीने से पहले नहीं आता है। बल्कि दो-चार दिन लेट ही आता है। उधारी लाल तकाजे से पहले चला आए,तो ब्याज की तो छोड़िए। मूल रकम हजम होने पर आतुर हो जाती है। इस भय के कारण बेचारा तकाज़ा के चार दिन बाद ही जाता है।
हमारे यहाँ पर तो नवदंपति के नौ माह से पहले बच्चा पैदा हो जाए तो सवाल उठने लगते हैं। अड़ोसन-पड़ोसन तरह-तरह की बातें बनाने लगती हैं। कानाफूसी होने लगती है। भले ही उसके चरित्र पर एक भी दाग नहीं हो। फिर भी दागदार बताकर बदनाम करने की साजिश रची जाती है। जब तक सच सामने नहीं आ जाता। तब तक कानाफूसी तो कायम ही रहती है।प्रेमिका अपने प्रेमी से मिलने के लिए,दिए गए समय से पहले आ जाए तो प्रेमी उसे संदेह दृष्टि से देखने लगता है। उस वक्त उसके मन में एक ही विचार आता है कि मेरे अलावा किसी अन्य के साथ तो प्रेम-प्रसंग नहीं चल रहा है। ब्रेकअप नहीं हो जाए। इस डर के मारे पूछताछ नहीं करता है। मगर खोजबीन शुरू कर देता है। खोजबीन में सुख-चैन खो देता है। जिसका सुख-चैन खो जाता है। उसका स्वाभाविक की ब्रेकअप हो जाता है। मायके गई बीवी वापस आने की निश्चित तिथि से पहले बिना सूचना के चली आए तो पति को दाल में कुछ काला लगने लगता है। कल आने वाली थी आज ही क्यों चली आई। कुछ दिन और रुक जाती। जैसे प्रश्न अपने आप से ही करने लगता है। पूछने की तो हिम्मत होती नहीं है। क्योंकि पत्नी के आने से तो जबान पर ताला लग जाता है।
किसी दिन समय से पहले नल में पानी आ जाए,तो दिनभर मोहल्ले में चर्चा बनी रहती है। उस दिन तो जलदाय विभाग को लंबी उम्र की दुआएं देते नहीं थकते हैं। अगले दिन उस समय से पहले ही बर्तन भांडे लेकर बैठ जाते हैं। लेकिन उस समय पर जब नल से एक बूँद पानी की नहीं टपकती है। तब जलदाय विभाग को कोसने लगते हैं। सड़क पर जाम लगाकर धरना देते हैं। मटका फोड़कर प्रदर्शन करते हैं। ज्ञापन देकर रसातल में गया जल स्तर को ऊपर उठाने की मांग करते हैं। जबकि अच्छी तरह से पता है। रसातल में गया जल ज्ञापन से तो क्या? विज्ञापन से भी ऊपर नहीं आएगा। किसी कारणवश सब्जीवाला अपने नियमित समय से पहले चला आए,तो यह समझते हैं कि जरूर सब्जियां बासी होंगी। जिन्हें बेचने के लिए चला आया है। इसलिए उसकी सब्जियों में मीनमेख निकालने लग जाते हैं। रोज बिना भाव-ताव तय किए खरीदने वाले भाव-ताव करने लगते हैं। जब तक एकाध रूपया कम नहीं कर देता उससे पहले सब्‍जी नहीं खरीदते हैं। उस दिन और दिनों से दुगुना धनिया लेना नहीं भूलते हैं।
यदि ट्रेन निर्धारित समय से पहले पहुँच जाए तो किसी आश्चर्य से कम नहीं लगती है। जो घर से यह सोचकर निकलते हैं ट्रेन निर्धारित समय पर तो आने से रही,अक्सर उनकी ट्रेन छूट जाती हैं। फिर वो टाइम की कीमत क्या होती है। बिना बताए ही जान जाते हैं। इसी तरह पुलिस वारदात से पहले पहुँच जाए,तो एक बार तो यकीन ही नहीं होता है। बल्कि शक होता है। कहीं वारदात में पुलिस की तो मिलीभगत नहीं। जो कि अपराधियों को भगाने के लिए समय से पहले आ गई या फिर सबूत मिटाने के लिए चली आई हो। 
अक्सर लेट आने वाला सरकारी कर्मचारी यदि किसी दिवस निर्धारित समय से पहले ऑफिस आ जाए तो चर्चा का विषय बन जाता है। उस दिन दिनभर कामकाज के बजाय उसकी चर्चा रहती है। सहकर्मी पहले आने का कारण जानने के लिए कुछ इस तरह के प्रश्न पूछे बिना नहीं रहते हैं,क्या बात है सर! आज सूर्य पश्चिम से निकला था क्या?जो कि आप ऑफिस टाइम से पहले ही चले आए या फिर कोई उच्चाधिकारी निरीक्षण करने आ रहा है। जिसके भय कारण चले आए। 
किसी भी कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि दिए गए समय से पहले पहुँच जाए,तो उसका उतना स्वागत-सत्कार नहीं होता है। जितना की देरी से आने पर होता है। अक्सर कार्यक्रमों में देरी से पहुँचने वाले माननीय नेता जी! यदि किसी कार्यक्रम में समय से पहले पहुँच जाए तो कई तरह की अटकले लगना शुरू हो जाती हैं। लोगों को उनकी खादी पर राजनीतिक स्वार्थ के फूल खेलते हुए दिखाई देने लगते हैं। समय से पहले आने पर चाकचौंबद व्‍यवस्‍थाएं आनन-फानन में तब्‍दील हो जाती है। 
मानसून समय से पहले आ जाए तो भविष्यवाणी करने वालों की वाणी को लकवा मार जाता है। क्योंकि उनकी भविष्यवाणी पर मानसून पानी फेर देता है। पानी फिरने के बाद उन पर से विश्वास उठ जाता है। एक बार विश्वास उठने के बाद फिर कोई भविष्य में भी उनकी भविष्यवाणी पर भरोसा नहीं करता है। वैसे तो भरोसा भरसक होता है। मगर जब बूंदाबांदी की कहेंगे और होती है मूसलाधार। मूसलाधार की कहेंगे और होती है  बूंदाबांदी। तब शक होता है। जब शक होता है। भरोसा होते हुए भी नहीं होता है।
समय से पहले आना जिनको अटपटा लगता हैं। उनके सिर के बाल जब समय से पहले सफेद हो जाते हैं। तब समझ में आता है। समय से पहले आने में समय का ही संयोग होता है। इसीलिए समय से पहले चले आते हैं। अन्यथा किसकी बिसात हैं,जो कि दिए गए समय से पहले चला आए।