26 नवम्बर 2017 रविवार को थानागाजी में अखिल भारतीय रैगर महासभा जिला अलवर के
तत्वाधान में आयोजित आठवां प्रतिभावान सम्मान समारोह में गांव चतरपुरा के मोहन
लाल मौर्य को साहित्य सृजन में उत्कृष्ट कार्य करने पर राजस्थान अनुसूचित जाति
आयोग के उपाध्यक्ष दर्जा उपमंत्री विकेश खोलिया एवं अखिल भारतीय रैगर महासभा के
राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी भंवरलाल खटनावलिया के द्वारा
प्रशस्ति प्रमाण पत्र एवं डा.भीमराव अम्बेड़कर का मोमेंटों देकर सम्मानित किया
गया। मौर्य की रचनाएं देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती
रहती है।
28 Nov 2017
प्रतिभाएं समाज की धरोहरः भंवरलाल खटनावलिया
अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष विकेश खोलिया ने थानागाजी
में रैगर छात्रावास बनाने की घोषणा की।मोहनलाल मौर्य चतरपुरा एवं घनश्याम बसेठिया चतरपुरा,अलवर
अलवर। जिले के थानागाजी में स्थित राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय के खेल
मैदान में रविवार 26 नवम्बर 2017 को अखिल भारतीय रैगर महासभा जिला शाखा अलवर के
तत्वावधान में आठवां प्रतिभावान सम्मान समारोह आयोजित किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अखिल भारतीय रैगर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
एवं सेवानिवृत्त आईएएस भंवरलाल खटनावलिया ने अपने सम्बोधन में कहा कि प्रतिभाएं
समाज की धरोहर है। ऐसी धरोहर रैगर समाज की अनुकरणीय है,जो समाज की दिशा एवं दशा
बदल देगी। उन्होंने कहा कि प्रतिभाएं निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर रहे और अपने
माता-पिता,घर,परिवार,समाज का नाम रोशन करते हैं एवं बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेड़कर
के पद चिह्रनों पर चलने का आह्वान किया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि राजस्थान
अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष विकेश खोलिया ने पांडाल में उपस्थित लोगों को
सम्बोधित करते हुए कहा कि हमें एकजुट होना होगा और समाज को अपनी ताकत दिखाकर
बताना होगा हमारी तादाद कितनी है। जब तक
हमारी राजनैतिक में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी नहीं होगी। तब तक हमारी
आवाज वहां नहीं पहुंचेगी जा पहुंचनी चाहिए। इस मौके पर इन्होंने रैगर समाज अलवर
के लोगों की मांग पर थानागाजी में जल्द ही रैगर समाज का छात्रावास बनाने की घोषणा
की है।
बाबा साहेब.डा.बी.आर.अम्बेड़कर
के छायाचित्र के समक्ष दीप प्रज्वलित के दौरान अतिथिगण
कार्यक्रम में सर्वप्रथम लोगों को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रीय प्रचार-प्रचार
सचिव एवं रघुवंशी पत्रिका के सम्पादक मकेश कुमार गाडेगावलिया ने अखिल भारतीय
रैगर महासभा के द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों के बारे में बताया एवं आगामी
कार्यों के बारे में विचार वक्त किए। कार्यक्रम में विशिष्ठ अतिथि दिल्ली के
पूर्व महापौर योगेन्द्र चांदोलिया ने बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने का आह्वान
किया। इसी क्रम में विशिष्ठ अतिथि मुख्य श्रेत्रिय प्रबधंक दी ऑरियन्टल इंशोरेंस
क.लि. के दयानन्द सक्करवाल ने कहा कि रैगर समाज का उत्थान करने के लिए हमें
शिक्षा पर ज्यादा से ज्यादा फोक्स करना होगा। विशिष्ठ अतिथि अखिल भारतीय रैगर
महासभा के प्रदेशाध्यक्ष डा.एस.के.मोहनपुरिया ने रैगर समाज को सामाजिक,आर्थिक,एवं
शैक्षिक, रूप से मजबूत करने पर बल दिया। इन्होंन ने कक्षा 12 वीं विज्ञान वर्ग
में 98 प्रतिशत अंक अर्जित करने वाले पुष्पराज भारती की भूरी-भूरी प्रशंसा की और
बच्चों से कहा कि आपको भी पुष्पराज भारती का अनुसरण करना चाहिए। कार्यक्रम में
विशिष्ठ अतिथि प्रधान आयुक्त दिल्ली सी.एम.चांदोलिया ने अपने सम्बोधन में कहा
कि समाज अपने वोट की अहमियत समझनी चाहिए। जांच-परख कर ही मतदान करें। इससे पूर्व
कार्यक्रम की शुरूआत सभी अतिथियों ने बाबा साहेब डा.भीमराव अम्बेड़कर के
छायाचित्र के समक्ष दीप प्रज्वलित करके की। कार्यक्रम का मंच संचालन अखिल भारतीय
रैगर महासभा जिला अलवर के जिला सचिव एवं स्वतंत्र पत्रकार,युवा व्यंग्यकार
मोहनलाल मौर्य निवासी चतरपुरा ने एवं पूरन मल रातावाल मैंड ने किया। इस मौके पर
विशिष्ठ अतिथि अखिल भारतीय रैगर महासभा के युवा प्रकोष्ठ प्रदेशाध्यक्ष भानू
खोरवाल,महिला प्रकोष्ठ की प्रदेशाध्यक्ष तारा देवी बेनिवाल,पूर्व शिक्षा
उपनिदेशक ज्ञानचंद मौर्य, अखिल भारतीय रैगर समाज धर्मशाला रामदेवरा एवं अखिल
भारतीय रैगर महासभा दिल्ली के प्रदेशाध्यक्ष नेतराम पिंगोलिया ने भी उपस्थित
लोगों को सम्बोधित किया। कार्यक्रम का समापन जिलाध्यक्ष तोताराम मौर्य ने सभी का
आभार प्रकट करके किया।
मंच पर
विराजमान अतिथिगण
|
इन भामाशाहों का रहा विशेष
सहयोग
कार्यक्रम में भोजन व्यवस्था खैराती लाल मौर्य एवं
सुंदरलाल मौर्य निवासी नरहैठ,शिल्ड,मोमेन्टों खरकड़ी कला सरपंच शकुंतला देवी सक्करवाल
एवं प्रमुख समाज सेवी रतनलाल सक्करवाल खडकड़ी कला, पानी की व्यवस्था नत्थूराम
बंदरवाल थानागाजी,माइक एवं साउण्उ की व्यवस्था धीरोड़ा सरपंच अनिता देवी एवं नवल किशोर जलुथरिया,फोटो स्टूडियों जीआर
फोटो स्टुडियों थानागाजी के गौतम सक्कर वाल एवं राहुल तौनगरिया भांगडोली का
विशेष सहयोग रहा है।
इस अवसर पर प्रमुख समाजसेवी रतनलाल सक्करवाल, अखिल भारतीय रैगर महासभा जिला
अलवर के जिला वरिष्ठ उपाध्यक्ष नवल तौनगरिया भांगडोली,युवा प्रकोष्ठ के जिलाध्यक्ष
रामप्रताप खोरवाल,जिला महासचिव मोहनलाल सांटोलिया,जिला उपाध्यक्ष ओमप्रकाश
जाजोरिया डहरा,जिला सचिव सेडूराम मौर्य,नरहैठ, कोषाध्यक्ष शम्भू दयाल सक्करवाल
खरकड़ी कला, जिला प्रवक्ता अनुज कुमार जलुथरिया नरहैठ, थानागाजी ब्लॉक अध्यक्ष
विजय सिंह मौर्य नरहैठ, बानूसर ब्लॉक अध्यक्ष मालेराम शेरसिया, मालाखेड़ा ब्लॉक
अध्यक्ष भोमाराम खटुम्बरिया, महिला प्रकोष्ठ की जिलाध्यक्ष रूपा देवी,
रामजीलाल जाजोरिया डहरा, प्रधानाचार्य सरदार सिंह जलुथरिया अजबगढ़,अनिल मौर्य
चतरपुरा,जयपुर ग्रामीण के कांग्रेस युवा प्रकोष्ठ के लोकसभा प्रवक्ता एवं अखिल
भारतीय रैगर महासभा के राष्ट्रीय सदस्य नीरज कुमार तौनगरिया,भारत भूषण भारतीय
कराणा,गणराम सक्करवाल कराणा,पूर्व जिलाध्यक्ष गोपीराम जाजोरिया,मुंडावरा,पंचायत
समिति सदस्य राजेन्द्र प्रसाद रैगर,महिमा सांटोलिया अजबपुरा,सेवानिवृत्त व.अ.चन्दर
लाल मौर्य चतरपुरा, दीनदयाल मौर्य बांधका, उद्योगपति जीवनराम मौर्य अलवर, पवन
कुमार मौर्य चतरपुरा, राजेन्द्र धुडि़या बसई जोगियान, कमलेश कुमार बसेठिया
चतरपुरा,मनुज कुमार जलुथरिया नरहैठ,नवीन खजोतिया नारायणपुर,दिनेश कुमार मौर्य
नरहैठ,चुन्नी लाल सौकरिया अम्बेड़कर नगर,रामनिवास सांटोलिया अजबपुरा,पूर्व सरपंच
अम्बेड़कर नगर रोहिताश्व सौकरिया,बीईओं बंशीधर खोरवाल अलवर,चन्द्र पाल धूडि़या
नाराणयपुर,धीरोड़ा के पूर्व सरपंच रामगोपाल जलुथरिया,हुक्म चंद सक्करवाल
बलदेवगढ़,दिनेश कुमार सक्करवाल सूरतगढ़,मूलचंद देवतवाल टहला,रमेश चन्द तौनगरिया
सूरतगढ़,राधेश्याम सांटोलिया अजबपुरा,जगमोहन मौर्य माधोगढ़, शंकर सौकरिया
अकबरपुर,राकेश उदेणिया माधोगढ़,नत्थूराम बंदरवाल थानागाजी, गौतम बंदरवाल
थानागाजी,जगदीश बंदरवाल थानागाजी,राजेन्द्र जाजोरिया मुंडावरा,भीवाराम खजोतिया
नाराणयपुर सहित समाज के गणमान्य लोग मौजूद थे।
पांडाल में
उपस्थित रैगर समाज के लोग
|
पांडाल में
उपस्थित रैगर समाज के लोग
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विज्ञान वर्ग
में 98 प्रतिशत अंक अर्जित करने वाले पुष्पराज भारती का पुष्पमालओं ,प्रशस्ति पत्र,शिल्ड
देकर सम्मानित करते हुए मंच पर उपस्थित अतिथिगण
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बालिका को
सम्मानित करते हुए दिल्ली के पूर्व महापौर योगेन्द्र चांदोलिया
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6 Oct 2017
तबादले ने बदली आबोहवा
मंगूरामजी
तबादला निरस्त की जुगत में है। लेकिन जुगाड़ लग नहीं रहा। जुगाड़ लग जाए तो
मंगूरामजी गांव के गांव में ही रह जाए। दरअसल मंगूरामजी का तबादला गांव से मीलों
दूर शहर में हो गया है। अब जिसने पूरी सेवाकाल गांव की आबोहवा में व्यतीत की हो।
उसे तो शहरी आबोहवा अजीब सी लगेगी। हां,मंगूरामजी के साथ गांव की आबोहवा का भी
तबादला हो गया होता तो वे अब से पहले कार्यभार ग्रहण कर लेते। क्योंकि गांव की
आबोहवा उनके अनुकूल रही है। कभी प्रतिकूल हुई नहीं। जब भी होने की कोशिश की है उससे पहले बंदोबस्त हो जाता था। अब वे आबोहवा का
तो तबादला करवा नहीं सकते। खुद का निरस्त हो जाए,वहीं गनीमत है।तबादले ने बदली आबोहवा
मंगूरामजी की ना
तो मंत्रीजी से जान-पहचान और ना ही मंत्रीजी मंगूरामजी को जानते हैं। जो जाते ही
तबादला निरस्त कर दे। चुनाव दौर में जरूर जानते-पहचानते होगे। क्योंकि उस वक्त
तो अनजान भी जान-पहचान वाला हो जाता है और चुनाव जीतने के बाद चिरपरिचित भी अनजान
हो जाता है। मंगूरामजी ठहरे सीधे-साधे व्यक्ति। कभी राजनीति से तादात्म्य रहा
नहीं। ईमानदारी से नौकरी की है। लेकिन कभी अपने बाल-बच्चों की ख्वाहिश पूरी नहीं
की है।
तबादला निरस्त
के चक्कर में मंगूरामजी की चप्पल घिस गई। गांव के मुखिया से लेकर प्रधान तक और
प्रधान से लेकर क्षेत्रीय विधायक तक कई चक्कर लगा मारे। इन सब से विन्रम आग्रह भी
कर लिया और आबोहवा का जिक्र भी कर दिया। आग्रह स्वीकार कर लेते हैं पर उपकार में
आश्वासन थमा देते हैं। जो कि किसी काम न काज का। बस थोड़ी देर खुशमिजाज का। उसके
बाद फिर से नेताजी की ज़बान का। क्योंकि आश्वासन ही तो है,जो आसानी से चिपका
दिया जाता है। वैसे भी नेताजी का आश्वासन देने में क्या जाता है? बहुतायत में पर्याप्त है। जो कभी समाप्त ही नहीं होता।
अंत में
मंगूरामजी गंगारामजी के पास पहुंचे,जो मंत्रीजी का खास है। खास से आस रहती है कि
तबादला निरस्त हो जाएंगा। गंगारामजी बोले- ‘बताए कैसे आना हुआ।’ मंगूरामजी ने
अपनी दुविधा बताई। सुनकर गंगारामजी ने भी सहानुभूति दिखाई। समझाते हुए कहा-‘बहरहाल
तो तुम्हारा तबादला निरस्त हो नहीं सकता।’ यह सुनकर मंगूरामजी एक शब्द ही बोल
पाए-‘क्यों?’ ‘क्योंकि तुम्हारी जगह मंत्रीजी के साले का तबादला हुआ है। इसलिए।’ यह
सुनकर मंगूरामजी चुपचाप ही वहां से चले आए और अगले दिन शहर के लिए बोरिया-बिस्तर
गोल कर ली। उस वक्त मंगूरामजी ने भी यह सोचा होगा-काश हम भी मंत्रीजी खास होते तो
आज गांव की आबोहवा में श्वास ले रहे होते। पर अब तो जो खास है वहीं पास है और जो
पास है वहीं खास है। फिर चाहे वह अंगूठाछाप क्यों ना हो? मंत्रीजी उसकी सुनेगा,जो उसका खास है। कुछेक दिन तो शहरी आबोहवा में घुटन सी
हुई। बाद शहरी आबोहवा इत्ती अच्छी लगने लगी कि गांव की आबोहवा का जिक्र करना ही
भूल गया और कहने लगा कि मंत्रीजी ने यहां तबादला करके बहुत अच्छा किया। अन्यथा मैं शहरी आबोहवा से
महरूम रहता। इसीलिए मैं मंत्रीजी को धन्यवाद देता हूं।
अच्छाई और बुराई की लड़ाई
सुबह-सुबह ही बुराई और अच्छाई लड़ने लगी। लड़ती-झगड़ती
हाथापाई पर उतर आई। जिन्हें देखकर भीड़ इकट्ठी हो गई। जो उन्हें छुड़ाने के बजाय
खड़ी-खड़ी तमाशा देखने लगी। मैं दोनों के बीच-बचाव में बीच में इसलिए नहीं कूदा कि कहीं बीच-बचाव में एकाध मुक्की मेरे नहीं पड़
जाए। इसलिए मैं भी ओर की तरह भीड़ का ही हिस्सा बनकर ही रह गया। मेरी तरह जो भी आ
रहा था, वह भीड़ का हिस्सा बनकर भीड़ ही बढ़ा रहा था। छुड़ाने के लिए कोई आगे
नहीं आ रहा था।अच्छाई और बुराई की लड़ाई
जो आ रहा था,वहीं जेब से मोबाइल निकालकर वीडियों
बनाने में मशगूल होता जा रहा था। मैंने एक सज्जन से पूछा-भाई ! वीडियों क्यों बना रहें है? देखने के लिए बना रहे है,उसने कहा। मैं फिर बोला-जब लाइव
ही देख रहे हो तो विडियों की क्या जरूरत है,भाई। वह बोला-बस,यूं ही। यूं ही क्यों?मैंने पूछा। तो वह
बोला-फेसबुक पर वायरल करूंगा। तुम्हें आपत्ति है क्या? मुझे भला क्या
आपत्ति है? पर किसी की निजता को मोबाइल में कैद करना अच्छी बात थोड़ी है। जरा सोचिए। वह
बोला-सोचना क्या है? देखना है,जिसे लोग देखेंगे। लोग देखेंगे तो लाइक,कमेंट्स
की भरमार होगी। मैं बोला-भाई! मेरा अभिप्राय यह नहीं है,जो आप समझ रहे है। मेरा अभिप्राय
है कि कल कोई आपकी निजता को भंग करें तो आप क्या सोचेंगे? यह सुनकर वह निरुत्तर
हो गया और मोबाइल जेब में रखकर वहां से खिसक गया।
हालांकि पता तो मुझे भी नहीं है। दोनों किस बात
पर लड़ रही हैं,पर भीड़ में से एक भाई साहब! बता रहे थे कि अच्छाई ने
बुराई को यह कह दिया कि आज रावण दहन के पुतले के साथ तू भी जलकर खाक हो जाएंगी।
बस,यह सुनकर बुराई आग बबूला हो गई और गालियां देने लगी। जब बुराई बुरी-बुरी
गांलिया निकालने लगी तो अच्छाई से रहा नहीं गया तथा उसने उसकी चोटी पकड़कर दो-चार
थप्पड़ रसीद कर दी। फिर क्या था? दोनों में गुत्थमगुत्थी
हो गई। दोनों की दोनों लड़ती-झगड़ती बीच सड़क पर आ गई। इन्हें देखकर आप-हम भी जुट
गए। अफसोस कि अब भी छुड़ाने को कोई आगे नहीं आ रहा है।
लड़ती हुई बुराई कह रही है कि तू अच्छाई होकर
भी क्या कर पाई? मैं देख बुरी होकर भी कहां से कहां पहुंच गई। तू समझती है
कि रावण के पुतले के साथ मैं भी जलकर खाक हो जाती हूं। मूर्ख मैं जलती ही नहीं,साइड
से निकल जाती हूं। यह तो मेरी कला है। जो आंखों में धूल झोंककर निकल जाती हूं। एक
बार तू मुझे छोड़कर देख। फिर बताती हूं। मैं क्या बला हूं। अच्छाई उसे छोड़ी तो
नहीं,पर बोली- तू चाहे जो बला हो। लेकिन मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। बुराई तू बुरी
है और बूरी ही रहेंगी और आज मैं तूझे तेरी औकात बताकर ही रहूंगी। बुराई छुड़ाने का
बार-बार जतन तो कर रही थी। लेकिन कामयाब नहीं हो पा रही थी। इसलिए भला-बुरा कही जा
रही थी। जिसका अच्छाई मुंहतोड़ जवाब दे रही थी। यह तो शुक्र है कि वक्त पर अच्छाई
की बहिन भलाई आ गई और बुराई का भाई बुरा आ गया। जिन्होंने आते ही दोनों को
अलग-अलग कर दिया। अन्यथा दोनों एक-दूसरी की जान लेने पर तुली थी। जबकि भीड़
तमाशबीन ही खड़ी थी।
29 Sept 2017
अच्छाई बुराई से जीत नहीं पाती
अच्छाई बुराई से जीत नहीं
पाती
प्रतिवर्ष रावण दहन के समय बुराई पर अच्छाई की
विजय भवःहोती आई है। उसके बावजूद भी अच्छाई विलुप्त और बुराई जाग्रत रहती है।
समझ में नहीं आता कि जब रावण के साथ बुराई जलकर राख हो जाती है तो अगले ही दिन
बुराई कहां से चली आती है और अच्छाई दुम दबाकर कहां भाग जाती है। बुराई
से मुकाबला क्यों नहीं करती? इसमें जरूर बुराई की ही
चतुराई होगी या दुस्साहस होगा। चतुराई तो क्या होगी? जिसकी बातों में आ जाती होगी। दुस्साहस ही
होगा। जिसे देखकर अच्छाई की पतलून ढीली हो जाती होगी। फिर पतलून पकड़कर साइड में
कहीं खड़ी हो जाती होगी या फिर घर ही चली आती होगी। क्योंकि पतलून को टाइट भी
करना होता है। जो बीच बाजार में संभव नहीं। इतनी देर में बुराई अपना काम तमाम करके
चलती बनती है। पीछे क्या है? बस,उसकी चर्चा आम होती है। जो होती रहती है।
मुझे तो विजयादशमी के दिन भी कभी कहीं अच्छाई
नज़र नहीं आई। उस दिन भी ना कहीं ना कहीं बुराई अपना आतंक फैला रही होती है। अगले
दिन अखबार में छाई होती है। दशहरा के दिन ‘विवाहिता की धारदार हथियार से हत्या’, ‘नाबालिग
से बलात्कार और आरोपी फरार’,‘अपहरण हुए मासूम की मिली लाश’ कुछ इस तरह ही हैडलाइन
होती है। जो बुराई की प्रतीक है। जिन्हें सुबह-सुबह अच्छाई भी चाय सुड़कती हुई
पढ़ती है। अफसोस करके मन मसोस लेती है,पर मुंह नहीं खोलती और ना कुछ बोलती। बस,चुप
रहती है। कई दफा तो इसके सम्मुख ही बुराई हावी होती रहती है और यह मुंह ताकती
रहती है। पता नहीं अच्छाई बुराई से क्यों डरती है? जबकि जीत उसकी ही होती है।
बस,देर हो सकती है। पर अंधेर नहीं।
यह सच है कि जंहा बुराई है,वहीं आसपास अच्छाई
भी होती है। लेकिन अच्छाई तो देख बुराई को मुंह फेर लेती है। जबकि उस वक्त मुंह
फेरने के बजाय मुंहतोड़ जवाब दे। फिर देखना बुराई तो भागती हुई जाएंगी और दुबारा
आने की हिमाकत भी नहीं कर पाएंगी। पर ऐसा अच्छाई कर नहीं पाती। कर पाती है तो
मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाती होगी। समझा-बुझाकर कर ही वहां से खुद ही खिसक लेती
होगी। यह देखकर बुराई मन ही मन खुश होती होगी। क्योंकि बुराई की चर्चा तो आग की
तरह फैलती है और अच्छाई धीरे-धीरे पनपती है। जबी तो बुराई बुरे काम करके निकल
लेती है। बुरे काम करके धमकी ओर देती है। जबान खोली तो जबान काट दूंगी। काटकर
खूंटी के टांग दूंगी। यह सुनकर ज़बान पर दहशत का ताला लग जाता है। ताले की चाबी
हाथ में होते हुए भी दहशत का ताला खोलने की हिम्मत नहीं होती। क्योंकि हिम्मत को
बदनामी दबोच लेती है। शायद इसलिए जबान पर लटकता हुआ दहशत का ताला चिढ़ता है,क्या
बिगाड़ लिया?
जब बुराई का कुछ बिगड़ता नहीं तो बुराई ओर
बिगड़ती चली जाती है। एक ना एक दिन ऐसी बिगड़ जाती है कि सरेआम शर्मसार कर देती है।
कमबख्त को उस वक्त शर्म भी तो नहीं आती। शर्म क्यों आएंगी? उस वक्त तो मजा आता होगा।
दूसरों की इज्जत उछालने में। लेकिन बुराई लाख चाहे खुश हो ले। अंत तो उसका बुरा
ही होता है और अच्छाई की तो सदैव ही विजय भवःहोती है।
23 Sept 2017
भैया इंग्लिश का जमाना है
चिंटू तुझे कित्ती बार मना किया है। भैया इंग्लिश का जमाना है हिंदी में
बात नहीं करते। इंग्लिश मीडियम के बच्चे इंग्लिश में वार्ता करते हैं। चलों अंकल
को अपना नाम बताओं। अंकल जी माई नेम इज चिंटू। यह सुनकर अंकल जी प्रसन्न हो गया
और कहा- वैरी गुड बेटे। इसी तरह से अंकल ने चिंटू से मम्मी-पापा का नाम पूछा और
चिंटू ने तपाक से बता दिया। जब चिंटू से देश के प्रधानमंत्री के बारे पूछा कि
बताओं अपने देश का प्रधानमंत्री कौन है? यह सुनकर चिंटू मौन हो गया और मुंह में उंगुली
चबाने लगा। चिंटू की मम्मी बोली भैया इंग्लिश में पूछों-अंकल इंग्लिश में पूछे
उससे पहले चिंटू ने सिर हिलाकर मना कर दिया।
भैया इंग्लिश का जमाना है
यह देख, चिंटू की मम्मी ने जट से चिंटू की
प्रिंसीपल को फोन लगाया। प्रिंसीपल ने फोन उठाया और कहा- हैलो कौन? मैं चिंटू की मम्मी बोल
रही हूं। हां मैडम बोलिए। चिंटू को प्रधानमंत्री का नाम तक मालूम नहीं हैं। आप क्या
खाक पढ़ाते है। मैडम ऐसी बात नहीं है। तो कैसी बात ? वह भी बता दीजिए। पहले तो आप
शांत हो जाए। क्या शांत-शांत लगा रखा है। फीस तो मोटी लेते हो और बच्चों को मम्मी
पापा के नाम रटवाकर वाहवाही लूटते हैं। तुमसे अच्छे तो हिंदी मीडियम वाले ठीक
है,जो बच्चों को पढ़ाते भले ही कम हो। लेकिन वे जित्ती फीस लेते हैं उत्ता
ज्ञान तो देते हैं। यह कहकर चिंटू की मम्मी ने फोन काट दिया।
भैया आप बैठए। मैं आपके लिए चाय लाती हूं।
भैयाजी चिंटू को अपने पास बोलकर पूछने लगे बताओं चिंटू तुम्हें ओर क्या क्या
आता है? पॅायम आती है। टेबल
आती है। गिनती आती है। ओर क्या आता है? बस यहीं आता है। अच्छा तो कोई पॉयम सुनाओं। मछली
जल की रानी है,जीवन उसका पानी है। हाथ लगाओं डर जाएंगी,बाहर निकालों मर जाएंगी। चिंटू
यह तो हिंदी की पॉयम है। अंग्रेजी में सुनाओं। अंकल इंग्लिश में नहीं आती। इंग्लिश
में क्यों नहीं आती है बेटे? अंकल जब मैडम पॉयम सुनाती है ना तो मेरी समझ में नहीं आती
है। समझ में क्यों नहीं आती? अरें,अंकल समझ में तो मैडम के भी नहीं आती। तुम्हें कैसे
पता मैडम के समझ में नहीं आती। अंकल पिंटू ने बताया था।
इत्ते में चिंटू की मम्मी चाय लेकर आ गर्इ।
भैयाजी चाय सुड़कते हुए बोले-भाभाजी चिंटू को इंग्लिश मीडियम स्कूल से अच्छा है
हिंदी मीडियम में पढ़ाओं। इसकी हिंदी में अच्छी पकड़ है। अरे, भैया आप क्या बोल
रहे है? हिंदी के दिन गए। अब
तो जमाना ही इंग्लिश का है। वह कमला है ना जो खुद निरक्षर है पर अपने बच्चे को
इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजती है और बहादूर की लड़की तो फराटे दार इंग्लिश
बोलती है। जबकि बहादूर को सही ढ़ग से हिंदी भी नहीं आती। भाभाजी आपने मेरी बात समझी
नहीं। बच्चे को उसकी हॉबी के मुताबिक पढ़ाना चाहिए। मनोविज्ञान भी यही कहता है।
कौन क्या कहता है? यह महत्तव नहीं रखता। आजकल शहर तो शहर गांवों बच्चे भी
इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। भैया प्रतिस्पर्धा का युग है। यह
सुनकर भैयाजी तो चुप हो गए। लेकिन चिंटू का क्या होगा ?
10 Sept 2017
काश जुकाम न लगे
भाई साहब! कित्ती ही
सावधानी बरत लो। जुकाम तो हो जाती है। होने के बाद निकल भी जाती है। लेकिन हैरान
करके रवानगी लेती है। जुकाम की फितरत है कि दबे पाव आती है और आते ही कब्जा जमाती
है। जहां इसकी दाल गल जाती है,वहां से जल्दी सी निकलती नहीं और जहां दाल गल नहीं पाती,वहां से पतली नाक
से निकल लेती है। इसके आने जाने का कोई शेड्यूल तो होता नहीं। कब कहां किस मोड़ पर
आ ठहरे और कब किस मोड़ पर साथ छोड़ दे कोई पता नहीं। जुकाम आतंकी की तरह होती है,जो नासिका की
सरहद पर से छींक दागती है तो नासिका से निकलने वाला पदार्थ ओष्ठ पर आकर गिरता है।
कई दफा तो ओष्ठ से लुढ़कर मुंह में घुसने का प्रयास करता है,पर उसके मनसूबे
पर रूमाल फिर जाता है। क्योंकि रूमाल नासिका का सच्चा साथी है,जो उसकी हरदम
हिफाजत करता है।काश जुकाम न लगे
जब भी नासिका और जुकाम के
बीच जंग छिड़ती है तबी सबसे पहले रूमाल ही मुकाबला करता है। दवा,घरेलु नुस्खे तो
बाद में आते हैं। वे भी ड्यूटी पर होते हैं तो आते हैं अन्यथा अपने डिब्बे में सुस्त
रहते हैं। बेचारा रूमाल ही मुकाबला करता रहता है। लड़ते-लड़ते नासिका पदार्थ से
लथपथ भी हो जाता है,फिर भी हार नहीं
मानता। अकेला ही जंग के मैदान में डटा रहता है। जंग के समय तो रूमाल जेब में कम और
नासिका क्षेत्र के आस-पास ज्यादा ड्यूटी देता है। ताकि दुश्मन का नेस्तनाबूद करता
रहे। लेकिन दुश्मन है कि अपने मनसूबों से बाज ही नहीं आता। जबकि उसे हर बार
मुंहतोड़ जवाब दिया जाता है। साला आदत से लाचार है। उसे पता नहीं जब कभी
आमने-सामने की टक्कर हो गई ना तो साले का आचार डाल दिया जाएंगा।
काश जुकाम न लगे
काश जुकाम न लगे
भाई साहब! जुकाम भी ना कई
बार तो इत्ती कुपित हो जाती है कि पूरी नासिका घाटी लाली हो जाती है और नासिका
मार्ग से लेकर गला मार्ग में कफ्र्यू लग जाता है। जिससे आवागमन बंद हो जाता है। जब
नासिका और गला मार्ग का आवागमन बंद होता है। तब ना दिमाग की बत्ती जलाने पर भी
नहीं जल पाती है। जब दिमाग की बत्ती गुल होती है ना तो देह अंग हड़ताल पर उतर आते
हैं। उनकी मांग होती है कि दिमाग की बत्ती जलाओं और हमें बचाओं। उस वक्त दिमाग की
बत्ती कैसे जलाए। क्योंकि हालात
इत्ती नाजुक होती है कि डॉक्टर द्वारा दी गई दवा भी काम करना बंद कर देती है। जब
तक दिमाग की बत्ती नहीं जलती, देह अंग ना तंग करते रहते हैं और अपनी मांग पर अटल रहते
हैं। वैसे इनकी मांग भी जायज है। क्योंकि दिमाग की बत्ती गुल होने पर देह अंगों के
भी अंधेरा छा जाता है।
यह तो शुक्र है कि जुकाम
स्थायी नहीं रहती। कुछेक दिन रहकर चलती बनती है। अगर स्थायी रहने लग जाए,तो समझों नासिका
का नाश तय है और दिमाग का दही। जब दिमाग का दही बनता है तो क्रोध छाछ बनने में भी
देर नहीं लगती। क्रोध छाछ ऐसी छाछ है जिसे पीने पर काया तृप्त नहीं,बल्कि सीने में
जलन होती है। सीने के जलने से,जो धुआं निकलती है वह तड़फ से भरी होती है और तड़फती धुआं
इत्ती घुलनशील होती है कि व्यक्ति घुट-घुटकर दम तोड़ देता है। वैसे जुकाम की मनसा
तो होती है स्थायी रहने की पर मेडिकल साइंस खदेड़ देती है।
मैं तो सलाम करता हूं,उनको जिनके जुकाम
होती रहती हैं और वे परवाह तक नहीं करते। पस्त होकर खुद-ब-खुद ही चलती बनती है।
इससे एक बात तो समझ में आती है,जुकाम होते ही जुकाम का काम तमाम कर दो या फिर उसकी परवाह
ही मत करों। लेकिन मैं तो जरा सा बेपरवाह हो जाता हूं,तब ही मुझे तो ससुरी
खाट पर लेटा देती और सिर पर चढ़कर तांडव मचाती है। जब यह तांडव करती है ना मेरे तो
दिमाग में घंटी बजने लगती है और कान के पर्दे हिलने लगते है। तब मैं सीधा डॉक्टर
साहब के पास जा थमता हूं। फिर भी ना मेरा पीछा नहीं छोड़ती। जी तो करता है ससुरी
का टेंटुआ दबा दू,पर उसमें भी मेरा
ही नुकसान है। इसीलिए मैं तो दवा-पानी से ही टरकाने का प्रयास करता हूं। सच तो यह
है कि मैं जुकाम से दुखी हूं। इत्ता दुखी हूं कि घर में ही दुबका रहता हूं। कहीं
आता-जाता ही नहीं। क्योंकि जहां भी जाता हूं,वहीं टोक देते है। कहते है- मोहन भाई! अभी तुम्हारी जुकाम
निकली ही नहीं। उन्हें कैसे समझाऊं। मुझे जुकाम होती रहती है। यह भी नहीं कि मैं
दवा नहीं लेता। अंग्रेजी,देशी,घरेलु नुस्खे सब
अजमा चुका हूं। अब तो प्रभू से प्रार्थना करता हूं काश जुकाम न लगे।
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8 Sept 2017
जेल गए बाबा की कहानी
बाबा के अनुयायी
बाबा की कहानी सुनाते हैं। जिसके कहानी समझ में आ गई वह बाबा का अनुयायी हो गया और
जिसके समझ में नहीं आई वह सोचने पर मजबूर हो गया। कहानी जो मजबूर हो गया समझों वह भी एक
दिन बाबा का अनुयायी बन गया और अनुयायी बनने के बाद फिर वह भी बाबा की कहानी
सुनाता है और एक नया अनुयायी बनाता है। जो नया-नया अनुयायी बनता है और बाबा के
आश्रम में पहुंचता है वह बाबा के दर्शन करके अपने आपको धन्य समझता है। उसे लगता है
जैसे साक्षात भगवान के दर्शन हो गए। बस,उसी दिन से बाबा को भगवान मान बैठता है और बाबा भी अपने आपको भगवान समझ बैठता
है।
कहते है कि पैसा
भगवान तो नहीं है,लेकिन भगवान से कम भी नहीं
है और बाबा के पास तो करोड़ों हैं। करोड़ों ही अनुयायी हैं। जिसके पास करोडों में
पैसा और अनुयायी हो वह अपने आपको भगवान तो समझेगा ही। किंतु अनुयायी कहानी में यह
सब नहीं सुनाता है। कहानी में तो कल्याण और कल्याण से जुड़ी कल्याणी होती है।
कल्याण आश्रम में और कल्याणी का कल्याण गुफा में होता है। जहां बाबा होता है और
कल्याणी होती है। उस वक्त बाबा राजा और कल्याणी बाबा की रानी होती है। क्योंकि
गुफा किसी राजमहल से कम नहीं है। बल्कि ज्यादा ही है। गुफा राजमहल में कल्याणी
रानी जबरन बनती है या फिर किसी जादू-टोने से सम्मोहित होती है यह तो बाबा ही जानता
है। कहानी
बाबा का चरित्र
कहानी में विचित्र होता है। लेकिन कहानी में यह तब आता है जब अनुयायी नहीं,मीडिया सुना रहा होता है। क्योंकि अनुयायी तो वहीं सुनाती है,जो बाबा बताता है और हकीकत मीडिया सामने लाता है। जब बाबा की पोल खुलती है और
बाबा गिरफ्त में होता है। तब ना बाबा के अनुयायी बाबा को बचाने के लिए आश्रम पहुंच
जाते हैं। तोड़फोड़ करते हैं। वाहन फूंकते हैं। क्षति पहुंचाते हैं। खुद भी
क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। फिर उनकी क्षतिपूर्ति अस्पताल में होती है और जिनकी
अस्पताल में नहीं होती उनकी श्मशान में होती है। उनसे पूछते है तो कहते हैं कि यह
तो बाबा को फंसाने का षड्यंत्र है। उन्हें यकीन नहीं होता। यकीन हो भी कैसे? भक्त होते तो यकीन कर लेते पर वे ठहरे अंधे भक्त। अंधे भक्त तो बाबा के
वक्तव्य पर ही यकीन करते हैं। मुझे तो लगता है इन्हें यकीन तब भी नहीं हुआ होगा।
जब बाबा आश्रम से जेल पहुंच गए। खैर,बीस साल की सजा हुई है,इत्ते दिनों में यकीन हो ही जाएंगा।
लेकिन फिर कोई ऐसा
बाबा पैदा हो जाएंगा। क्योंकि भारत तो बाबा प्रधान देश है। जिसमें एक जेल जाता है
और दूसरा आता है। इनका क्या जाता है। लूट तो भोली भाली जनता जाती है। जो बाबा के
अनुयायी से उसकी कहानी सुनकर ही बाबा के आश्रम पहंच जाती हैं। वहां जनता की अस्मत
फिर लूट ली जाएंगी,वह लाज शर्म के मारी अपनी कहानी बंया नहीं कर पाती है। ऐसे में
बाबाओं का हौंसला बढ़ जाता हैं। जबकि बाबाओं को वहीं पर सबक सीखाना चाहे।
5 Sept 2017
कभी नहीं घटे,शिक्षक का आदर-सत्कार
शिक्षक का
नाम मन-मस्तिष्क में आते ही हमारे समाज में एक अलग रूपरेखा निर्मित हो जाती है।
शिक्षक समाज, देश का पथप्रदर्शक होता है। एक शिक्षक देश को बना सकता है, तो देश का विनाश भी कर सकता है। देश का भविष्य कैसा होगा, यह शिक्षकों के हाथों में समाहित होता है। गुरु का स्थान
हमारे पुरातन संस्कृति में भगवान से बढ़कर बताया गया है। तभी तो यह उक्ति प्रचलित
है, गुरु गोविंद दो खड़े, काके लागु
पाय,बलिहारी गुरु आपसे गोविंद देऊ बताए।शिक्षक घर,परिवार,समाज में
आदरणीय व सम्माननीय स्थान रखता है। माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चों के भविष्य
का निर्माण करता है। छात्रों को अच्छे संस्कार से अवगत कराता है। एक गुरु की तुलना
हम एक कुम्हार और जौहरी से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक कुम्हार बिखरी हुई मिट्टी
को समायोजित करते हुए उसे घड़े का आकार देता है, वहीं काम एक
शिक्षक समाज और देश के लिए करता है। बड़ों के प्रति आदर-सत्कार व सेवा-भावना
की प्रेरणा शिक्षक से ही मिलती हैं। एक शिक्षक की दृष्टि में सभी छात्र समान
होते हैं, और वह सभी का भला चाहता है। वह अपने शिष्यों को सही-गलत व
अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए उनकी नींव मजबूत करता हैं और उन्हें एक साचे में ढालकर
कामयाबी की सीढ़ी तक पहुंचाता हैं। ताकि वे अपने मंजिल तक पहुंच जाएं। किताबी
ज्ञान के साथ नैतिकता की शिक्षा देकर अच्छे चरित्र का निर्माण करता है।
शिक्षक की तुलना उस संचालक से की जा सकती है,जिसके बिना
जीवन रूपी गाड़ी का कोई औचित्य नहीं। जिस प्रकार महंगी से महंगी गाड़ी, बिना संचालक के बैलगाड़ी के समतुल्य है, उसी तरह बिना गुरु के जीवन का कोई सार्थक मूल्य नहीं। लेकिन
वर्तमान परिवेश में शिक्षा जगत व्यापार बन गया है। गुरु-शिष्य के बीच वे संबंध अब
नही रहे, जो गुरुकुल परम्परा या प्राचीन समय में थे। आज के कई शिष्य
तो अपने शिक्षक के चरण छूने में भी शर्म महसूस करते हैं, तो कई शिक्षक भी अपने छात्रों का शारीरिक और मानसिक शोषण
करते हैं। दूसरे अर्थों में आज गुरु-शिष्य की वास्तविक परिकल्पना ही नज़र नहीं आती।
शिक्षक भी जब शिष्य के स्तर पर आकर छात्रों से व्यवहार करने लगते हैं, फिर उनकी व्यवहारिकता और प्रभावित होने लगती है। आज अगर गुरु-शिष्य
का संबंध मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रह गया है। तो यह रवायत भी सही नहीं है।
सभ्य समाज में गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना गया हैं। वह परम्परा समाज से गुम
नहीं होनी चाहिए। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानकर उनकी मूर्ति को अपने
सक्षम रख धनुर्विद्या सीखी, लेकिन आज न द्रोण जैसे शिक्षक है, और न ही एकलव्य जैसे छात्र। आज तो छात्र शिक्षा को खरीदी
जाने वाली वस्तु, और शिक्षक ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है। किंतु इन सब
के इतर आज भी हमारे समाज में ऐसे शिक्षक हैं। जिन्होंने हमेशा समाज के सामने एक
अनुकरणीय मिशाल पेश किया है। जिनकी हम जितनी सराहना करें, वह कम ही होगी।
देश के द्वितीय राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म
दिवस के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला शिक्षक दिवस हर वर्ष 5 सितम्बर को एक पर्व की तरह
मनाया जाता है। जो शिक्षक समुदाय की गरिमा को बढ़ाता है। भारत में प्राचीन काल से
ही गुरु-शिष्य की परम्परा चली आ रही है। जो आज भी विद्यमान है। लेकिन अब धन के बल
पर शिक्षा लेने और देने का कारोबार फल-फूल रहा है। जिसमें ज्ञान अर्जित नहीं होता,बल्कि परीक्षा में उत्तीर्ण
होने के फार्मूलों के साथ रटाया जा रहा है। बदलते समय के मुताबिक जरूरत किताबी ज्ञान
के साथ व्यवहारिक,सुसंस्कारी,मनोवैज्ञानिक ज्ञान की शिक्षा
देने की है। जिससे आज के छात्र में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का भी
अंतर्भाव रहे। इसके अलावा
शिक्षक दिवस पर अपने टीचर को गुलाब का पुष्प या कोई उपहार देने से बढ़कर हैं, आज की छात्र पीढ़ी उनका आदर-सम्मान
करें, और उनके द्वारा बताएं गए मार्ग
पर चले। तब शिक्षक दिवस मनाने का महत्त्व अधिक सार्थक सिद्ध होगा। क्योंकि टीचर का
संबंध केवल शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। बल्कि वह तो हर मोड़ पर अपने शिष्य का हाथ
थामने के लिए आमादा रहता है।
जहां कहीं भी शिष्य विचलित
होता है या अपनी राह से भटकर दूसरी राह पर चलने लगता है। तब टीचर को बहुत दुख होता
है। क्योंकि उसके द्वारा,जो बीज
रोपकर पौधा धीरे-धीरे पेड़ बनने के लिए आमादा था। वह पेड़ बनने से पूर्व टूटने के
कगार होता है तब सबसे ज्यादा दुख टीचर को ही होता है। इसी स्थिति में
उसी पथ पर वापस लाले के लिए शिष्य को अपने पास बुलाता है और समझाता है। जीवन में
आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है और यह एक शिक्षक का कर्तव्य भी है। कई बार शिक्षक अपने शिष्यों
को डांट-फटकार देता है, तो कई छात्र कुपित हो जाते हैं। छात्र कुपित होने की बजाय
यह जानने की कोशिश करें कि उसने क्या गलती की है? जो टीचर ने मुझे डांटा है। साथ
ही साथ आज गुरु- शिष्य की परम्परा को पुनर्जन्म की आवश्यकता भी है,जिससे समाज को सही दिशा मिल
सके। शिक्षा मात्र पठन और पाठन का जरिया न रहकर, आपसी स्नेह, और विचारों के प्रवाह की धारा
बन सके, जो आज टूटता दिख रहा है। उसे
टूटने से बचाया जाए।
30 Aug 2017
सही बात है,नाम में कुछ नहीं रखा
मैं कई दिनों से अपने नाम को लेकर हैरान हूं। हैरान इसलिए हूं कि एक दिन एक
मित्र ने यह कह दिया-अपना नाम बदल लीजिए। मैंने उससे पूछा- नाम बदलने से क्या होगा?
उसने जवाब दिया-एक बार नाम बदलकर तो देखिए। फिर देखना होता
क्या है?
दरअसल उसने ही बताया कि आपका नाम यानी की मेरा नाम मेरे
मुताबिक जम नहीं रहा है। मैंने सुना है कि मित्र का मंतव्य ही गंतव्य तक पहुंचाता
है। इसलिए मैंने अपना नाम बदल लिया। बदले नाम से एकाध रचना भी प्रकाशित करवा ली।
मन में उत्कंठा उत्पन्न हुई कि,जो मूल नाम से यश-कीर्ति प्राप्त नहीं हुई। हो सकता है
परिवर्तन नाम से हो जाए। यहीं सोचकर मैंने अपने नाम में से मध्यम हटा दिया। प्रथम
और अंतिम रख लिया। सम्पूर्ण परिवर्तन तो कर नहीं सकता। सम्पूर्ण परिवर्तन करने का
अभिप्राय है अपना जो अस्तित्व है उसे विलुप्त करना।
सुना है कि नाम की बड़ी महत्ता होती है। यह अलग बात है कि कईयों कि नाम के
विपरीत मनोदशा होती है। जैसे कि नाम तो रोशन लाल है,पर रहता बेचारा अंधेरे में है। इसी तरह नाम तो शमशेर बहादुर
सिंह है,पर मरे ना चूहा भी। कद का ठिगना है,पर नाम लम्बरदार है। रंग का काला है,पर नाम सुन्दरलाल और रंग का गोरा है,पर नाम कालूराम है। देह दुबली पतली है और नाम मोटूराम है।
अष्ट-पुष्ट,लम्बी-चौड़ी कद-काठी है,पर नाम छोटूराम। कई होते तो मर्द हैं,पर उनके नाम में औरत का नाम पहले आता हैं। जैसे कि
दुर्गाप्रसाद,लक्ष्मी नारायण,सीताराम,आदि-इत्यादि। कईयों के नाम बड़े-अटपटे होते हैं,पर उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है और कईयों के नाम
भगवान के नाम पर होते हैं,फिर भी उन्हें आधे-अधूरे नाम से सम्बोधित किया जाता है।
मसलन,नाम तो है ‘हनुमान’ और बुलाते है ‘हड़मान’।
मैंने अपना नाम परिवर्तन क्या किया? अड़ोसी-पड़ोसी आपत्ति जताने लगे। जबकि नाम मैंने परिवर्तन
किया है और आपत्ति वे जता रहे हैं। पड़ोसी गंगाराम ने बताया कि भाई नाम परिवर्तन
से कुछ नहीं होता। नाम तो काम से होगा। नाम तो मुंबई,कोलकाता,चेन्नई,वाराणसी,सहित कई शहरों के भी बदले गए है। लेकिन हुआ क्या?
क्या वे शहर इधर से उधर हो गए?
यहां फिर उनके पंख लग गए,जिधर मन किया उधर की उड़ चले। वे वहीं स्थित हैं,जहां थे। हां,उनका आकार-विकार जरूर बढ़ता रहता है। आकार-विकार का क्या है?
वह तो बगैर नाम परिवर्तन के भी घटता-बढ़ता रहता है। पड़सोसियों
कि ओर से इस तरह के सुझाव सुनकर मैं असमंजस में हूं। इस सोच में डूबा हुआ हूं कि
मित्र ने भी कुछ ना कुछ उधेड़बुन कर ही ऐसी राय दी होगी। अन्यथा आज के युग में भला
ऐसी राय कौन देता है।
एक पड़ोसी ने तो यह तक कह दिया-भाई! नाम अमरसिंह रखने से कोई अमर नहीं हो
जाता। उसे भी मरना तो पड़ता ही है। लक्ष्मी नाम है तो इसका मतलब यह थोड़ी है कि
कुबेर का खजाना उसी के पास है। नाम सत्यप्रकाश है तो यह जरूरी थोड़ी है कि वह झूठ नहीं बोलेंगा। इसी तरह नाम दयाशंकर है तो
इसका मतलब यह नहीं कि उसे क्रोध नहीं आएंगा। भाई! नाम तो नाम होता है। नाम चाहे
बड़ा हो। चाहे छोटा हो। उसके काम के अनुरूप ही उसका नाम बड़ा होता है।
इत्ती सी बात मेरे समझ में कैसे नहीं आयी और पड़ोसी ने चंद
नामों के जरिए ही समझा दिया। लेकिन एक बात अब भी समझ में नहीं आयी। मित्र ने नाम
परिवर्तन का सुझाव क्यों दिया? खैर छोडि़ए। कई दिनों से जो उलझन बनी हुई थी वह सुलझ गई और
नाम की महत्ता का भी ज्ञान हो गया।
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