27 Dec 2020

बधाई का कैप्शन

 


मैं सोच रहा हूँ कि लोगों को अबकी बार नववर्ष पर कुछ इस तरह से बधाई दूं कि लोग मेरी बधाई को उसी तरह याद रखें,जिस तरह विशेष अवसर पर दिए गए सबसे महंगे उपहार को याद रखते हैं। बाकी सभी की बधाई को उसी तरह से भूल जाएं,जिस तरह से नेतागण चुनाव जीते ही आवाम से किए गए वादे भूल जाते हैं। बधाई शेरो-शायरी के अंदाज में दूं या कविता के मिजाज में, यह समझ नहीं आ रहा है। स्वरचित दूं या सर्चजन गूगलदेव की शरण में जाकर कॉपी-पेस्ट कर दूं। पोस्टर बनाकर दूं या फिर वैसे ही पोस्ट कर दूं। वैसे तो वैसे ही लगेगी,जैसे त्योहारी सीजन में मिलावटी मावे की मिठाईयां लगती हैं।


सोचा,पोस्टर बनाकर ही दे डालता हूँ। मैंने पोस्टर के लिए,सबसे पहले गूगलदेव से याचना की कि हे गूगल महाराज, एक पोस्टर इमेज सर्च कर दीजिए। मैंने एक के लिए कहा और उसने हजारों दिखा दी। वो भी एक से बढ़कर एक आकर्षित करने वाले। उनमें से अब किस एक को डाउनलोड करूं,जो कि मेरी बधाई को यादगार बना दे। यादगार के लिए मैंने मददगार की सलाह लेना उचित समझा। ऐसे समय में  धर्मपत्नी से बड़ा मददगार और कौन हो सकता है भलासो,मैंने धर्मपत्नी को इंटरनेट युग के आराध्य देव गूगल महाराज के द्वारा दिखाए गए पोस्टर चित्रों को दिखाया। धर्मपत्नी ने एक दो-बार ऊपर-नीचे स्क्रॉल करके एक ऐसे चित्र पर उंगली रखी,जो कि मुझे कम ही पसंद था,लेकिन पत्नी की पसंद को नापसंद में बदलना,शामत को आमंत्रण देना है।

धर्मपत्नी द्वारा चयनित इमेज को डाउनलोड करके उसे ऐप के पास ले गया,जो कि एडिटिंग करके उसे पोस्टर के रूप में परिवर्तित करता है और इतना आकर्षित बना देता है कि कम पसंद भी बहुत पसंद आने लगता है। ऐप ने जादूगर की तरह दो ही मिनट में पोस्टर बना डाला।मैंने तुरंत सेव किया और सोशल मीडिया के सबसे बड़े प्लेटफार्म फेसबुक पर गया। वहाँ पोस्ट करने से पहले ही मेरा मन मुझसे बोला,‘तू कोई नेता है क्यायह पोस्टर क्यों पोस्ट कर रहा है?’ मैंने कहा, ‘ नववर्ष की बधाई देने के लिए।मन ने कहा, ‘तू तो लेखक है,लेखक की तरह बधाई दे।’ 

लेखक किस तरह से बधाई देते हैं,यह मुझे पता नहीं। सोचा,किसी लेखक से पूछा जाए। क्योंकि एक लेखक ही एक लेखक की मनोस्थिति को समझ सकता है। सो,मैंने एक लेखक से पूछा। उसने लेखकीय शैली में बधाई देने के लिए कहा। मैं लिखता हूँ,व्यंग्य। व्यंग्यात्मक शैली में नववर्ष की बधाई देना,डिसलाइक लेना है। सोमैंने अपने मन से पूछा,‘अब क्या करूंसोशल मीडिया पर नववर्ष की बधाई नहीं दी तो मेरा सोशल मीडिया पर रहना ही व्यर्थ है।मन कहा, ‘पोस्टर तो तू यही पोस्ट कर देमगर कैप्शन ऐसा लिख कि सब तेरे मुरीद हो जाएं।अब आप ही बताइए बधाई का कैप्शन,जो कि लोग मेरे मुरीद हो जाएं।

 मोहनलाल मौर्य

17 Nov 2020

कड़ाही नहीं चाहती लड़ाई

कदाचित ही ऐसा कोई घर होगा,जहाँ दो बर्तत आपस में नहीं टकराते होंगे। पुरानी कहावत भी है कि घर में दो बर्तन होंगे,तो टकराएंगे भी। अक्सर नहीं तो यदाकदा टकराते होंगे। चकला-बेलन नहीं,तो कटोरा-कटोरी लड़ते होंगे। चिमटा-चमचा भिड़ जाते होंगे। थाली-प्लेट में तकरार हो जाती होगी। और नहीं तो चम्मच ही टाँग अड़ा देती होगी। नोकझोंक तो बड़े से बड़े घरों के बर्तनों में भी हो जाती है। यह भी सच है कि कई घरों के बर्तनों में सुबह कलह तो शाम को सुलह भी हो जाती हैं।

मेरे पड़ोसी के बर्तन ब्रांडेड होते हुए भी अक्सर टकराते रहते हैं। टकराएंगे तो बजेंगे भी। बजेंगे तो आवाज भी होगी। आवाज होगी तो अडोसी-पड़ोसी भी सुनेंगे। सुनेंगे तो अच्छी-बुरी बातों के संग झूमेंगे भी। झूमेंगे तो गाएंगे भी। फिर चाहे सुर बेसुर ही क्यों ना निकलेतब तक गाते रहेंगेजब तक आवाज ब्रांडेड के ब्रांड एंबेसडर के कानों तक नहीं पहुँच जाएं। ब्रांड एंबेसडर के कानों तक पहुँचाने का अभिप्राय है कि आपने जिस तरह से इश्तहार में बताया था वैसा नहीं निकला। बतौर गारंटी पीरियड में ही चमक में धमक पड़ रही है। तुम्हारे सभ्य व संस्कार धातु से निर्मित बर्तन को समझाने के डिटर्जेंट से मांजते हैं तो कुपित दाग छोड़ने लगते है।

जिसके बर्तन हैं,उसे कतई गिला-शिकवा नहीं। उसके पड़ोसी इसी चिंता में सूखे जा रहे हैं कि ब्रांडेड,सभ्य व  संस्कार की धातु से निर्मित होने के बावजूद भी बर्तन अक्सर क्यों टकराते व बजते रहते हैंआपसी टकराव की वजह क्या हैबेवजह भेजा फ्राई करने वाले पड़ोसी से अच्छा पड़ोसी वही है,जो अपनी वजह के बजाय पड़ोसी की वजह को ढूँढने में लगा रहता है। यह तो हम भी  जानते हैं बेवजह क्यों बजेंगेकोई न कोई वजह है तभी तो उनकी चम्मच भी कड़ाही पर हावी हो जाती है। इस कड़ाही से तीन और बड़ी कड़ाही हैं,उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। यह उनके घर की सबसे छोटी कड़ाही है। आकार-विकार में नहीं। उम्र में छोटी है। छोटी कड़ाही आग में जलकर सब बर्तनों का पेट भरती है। फिर भी उनके सारे बर्तन उसी को कोसते रहते हैं। बुरा-भला कहते हैं। 

जब से यह आई है,आए दिन गृह युद्ध होता ही रहता है।पर जहाँ से यह आई है,उनके सात पीढ़ी में भी बुराई की 'बूतक नहीं और इसके सिर पर रोज बुराई का ठीकरा फूटता है। सब्जी जल गई तोसब्जी में पानी ज्यादा हो गया तो,चमचे ने अपना काम ढंग से नहीं किया तो ठीकरा इसी के माथे पर फूटेगा। गनीमत यह है कि कड़ाही लड़ाई नहीं चाहती। अन्यथा अब से पहले रक्त की नदियाँ बह जाती और न जाने कितने ही शूरवीर बर्तन शहीद हो जाते हैं।

कड़ाही को अड़ोसन-पड़ोसन बहकाती भी खूब हैं। अच्छे- खासे लोहे से निर्मित है। फिर भी जुल्म-सितम सह रही है। घुटन भरी जिंदगी जी रही है। यह भी कोई जीना है। बगावत के बाण प्रक्षेपित क्यों नहीं करतीऐसी भी क्या मजबूरी हैजुबानी जंग भी नहीं लड़ती। तेरी जगह हम हो तो जुबानी जंग के दौरान ऐसी बुरी-बुरी गालियों की गोली दागे कि सामने वाले की जुबान लकवा खा जाए। गली-मोहल्ले के तवों से तो यह तक सुना है कि कड़ाही में ही खोट है। इसीलिए खरी-खोटी सुनती रहती है। 

दरअसल में या तो यह बहुत समझदार है या फिर एक नंबर की बेवकूफ है। बहकाने के बावजूद भी नहीं बहकती। बस सुनकर मुस्कुराकर चल देती है। यह इसकी मजबूरी है या खूबी। यह भी रहस्यमय है। भगवान जाने यह किस लोहे की बनी है,जो कि इतना सितम सहने के बावजूद भी कभी लाल-पीली नहीं होती। बस मुस्कुराती रहती है।

कड़ाही  के साथ अक्सर होने वाली लड़ाई की वजह उस दिन सामने आ ही गई। जिस दिन पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया था और हाथापाई में कड़ाही का एक हाथ फैक्चर हो गया था। पता चला है कि कड़ाही  की सगाई में दहेज नाम का जो ऑफर बताया गया था। वह पूरा नहीं मिला था। इसी वजह से कड़ाही साथ लड़ाई होती है।


 

4 Nov 2020

महंगे और सस्ते का संवाद

कल तक प्याज आलू के साथ रहता था, मगर आजकल सेब के साथ उठने-बैठने लगा है। अपने आप को बड़ा और एलिट किस्म का समझने लगा है। किसी भी सब्जी से सीधे मुँह बात नहीं करता है। कोई हाल-चाल भी पूछता है तो उसे उल्टा जवाब देता है। तराजू में आने से पहले अपना मूल्य बताए बगैर नहीं रहता है। बताए गए मूल्य में एक रुपया भी कम नहीं करता है।  तराजू से ग्राहक के थैले में जाते समय बाकी सब्जियों की ओर हिकारत भरी निगाहों से देखकर मंद-मंद मुस्कुराता रहता है। इस दृश्य को देखकर आलू,बैंगन,टमाटर,गाजर,मूली के जलन होती हैं...मगर क्या करें,बस जल भूनकर रह जाते हैं। अपनी किस्मत को कोसते हैं और सोचते रहते हैं,प्याज में ऐसा क्या हैजो हम में नहीं है। हम भी तो धरा का सीना चीरकर ही बाहर निकलते हैं,फिर हममें और प्याज में इतना भेदभाव क्यों? कहीं प्याज को सब्जियों के संविधान में कोई आरक्षण तो नहीं मिला हुआ है? या कहीं उसे सब्जियों में समुदाय विशेष तो नहीं माना जाता हैप्याज तो कटते समय आँसू तक निकलवा देता है, उसके बावजूद भी उसके दाम 'ड्रोन' पर बैठकर उड़ते हैं और हमें 'ड्रेनेज' के दाम भी नहीं पूछा जाता है।

थैले में से बाहर निकलकर प्याज जब रसोई में अपना रुतबा दिखाता है, तब लगता है मानो संजय राऊत हो गया हो। प्याज का रुतबा देखकर चाकू भी उस पर ठीक वैसे चलने से मना कर देता है, जैसे नेतागण संवैधानिक दायरों पर चलने से मना करते हैं। चाकू चलाने वाले हाथ वैसे ही कांपने लगते हैं, जैसे ठंड में नहाने के बाद कांपते हैं बच्चे। प्याज को काटने वाले की आंखों से आंसू छलक आते हैं। ये आंसू ख़ुशी और अमीरी के होते हैं कि हम प्याज खरीद पाए।

एक ही खेत की कोख से उपजे आलू और प्याज में मामला अब कुछ-कुछ वैसा हो गया है, जैसे एक ही परीक्षा देकर आरक्षण पाने और आरक्षण न पाने वाले के बीच हो जाता है। प्याज को ज्यादा भाव में तौला और तुलवाया जा रहा है, जबकि आलू को कम। यह ठीक वैसा है जैसे परीक्षा परिणामों में आरक्षित और अनारक्षित के लिए तय होते हैं अलग-अलग कटऑफ।

इधरप्याज का कहना है कि जब मैं सड़क पर पड़ा-पड़ा सड़ रहा था,तब कोई भी सब्जी पूछने तक नहीं आई कि भाई तुम्हारी ऐसी दुर्गति क्यों हुई। मगर अब यदि मैं ठाठ-बाट में हूँ तो सब्जियों से मेरा सुख देखा नहीं जा रहा हैं? मुझे देखकर जलने लगते हैं। मुझसे ईर्ष्या करते हैं। प्याज का दुःख अपनी जगह सही है, लेकिन इसमें आलू का भला क्या दोष? आलू अपने तमाम गुणों के बावजूद सब्जी की दुकान पर जमी टोकरियों के पीछे धकेल दिया गया है। फिर भले ही वह हर सब्जी के साथ स्वयं को को एडजेस्ट करने को तैयार हो, लेकिन आज उसे 'विशिष्ट' का गैरजरूरी दर्जा देकर अलग बोरे में बंद करके रख लिया गया है।

खैर, जो भी हो मगर फिलहाल तो प्याज का इठलाना जारी है। इससे शेष सब्जियां रुआँसी सी हैं। आलू को ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहा है क्योंकि वह जानता है अपनी कीमत।



3 Nov 2020

नाक का सवाल

उसकी भी वहीं नाक है,जो कि एक आम भारतीय की होती है। मूँछ भी कोई खास नहीं पर वह मूँछों पर हाथ ऐसे फेरता है,जैसे ‘राउडी राठौर’ फिल्म में अक्षय कुमार फेरता है। सच पूछिए तो उँगली और अँगूठे के बीच में चार बाल भी नहीं आते होंगे। लेकिन वह छोटी सी बात को भी मूँछ का बाल तथा नाक का सवाल बना लेता है। एक बार बना लिया तो बना ही लिया। फिर पीछे नहीं हटता। पक्का हठधर्मी है। 

नाक के सवाल पर तो घरवालों की ही नहीं, अगल-बगल वालों की भी नाक में दम कर देता हैं। और जब तक नाक के सवाल का जवाब नहीं मिल जाता। तब तक नासिका पर मक्खी भी नहीं बैठने देता है। इसी तरह मूँछ के बाल पर जब तक बाल में से खाल नहीं निकाल लेता। तब तक बाल को खाल से अलग नहीं होने देता हैं। 

अगर किसी ने हँसी-मजाक में भी कह दिया अमुक ने अमुक काम क्या कर दियाउसका नाम हो गया। इतना सुनते ही फलाने सिंह का काम तमाम करने में और खुद का नाम करने में जुट जाता है। चाहे परिणाम शून्य ही निकले पर जोर सैकड़े का लगा देता है। खर्चा-पानी की भी परवाह नहीं करता। नाक का सवाल और मूँछ के बाल पर तो पानी की तरह पैसा बहा देता है। वैसे एक रुपया नाली में गिर जाए तो उसे भी निकालने लग जाता है। एक नंबर का मक्खीचूस है।

पड़ोसी के लाल से अपना लाल क्रिकेट मैच हार गया तो समझता है कि नाक कट गई। हर जगह अपनी नाक ऊँची रहे। इसलिए अपने बेटे पर भी बाजी लगा देता है। उसकी हार को जीत में बदलने के लिए। जीत गया तो इस तरह ढिंढोरा पीटता है,जैसे कि पुत्र वर्ल्ड कप जीत गया हो। चुनावी मौसम में कोई यूं ही कह दे कि तुम्हारे प्रत्याशी चुन्नीलाल के तो चुनाव में चूना लगेगा। फिर भले ही चुनाव वार्ड पंच का ही क्यों ना हो?अपने उम्मीदवार को जिताने का मिशन ही मूँछ का बाल होता  है।

उसकी नाक और मूँछ का दायरा खुद तक ही सीमित नहीं है। घर-परिवार,गली-मोहल्ला,गाँव- देहात,कस्बा,शहर,राजधानी से लेकर सोशल मीडिया तक विस्तृत है। जब मोहल्ले की खुशी किसी खुशीराम के साथ भाग गई थी। तब नाक अपनी न होकर मोहल्ले की हो गई थी। उसकी खोजखबर में चिरपरिचित से लेकर अपरिचित तक से पूछताछ कर डाली और  तीन दिन में ही ढूँढ़ निकाली थी। इसी तरह फेसबुक मित्र के चित्र पर मित्र चतरसिंह की लड़की चित्रकला फिदा हो गई तो समझा कि मित्र की नाक ही मेरी नाक है। इसलिए जुदाई का कमेंट लिखकर दूर रहने की चेतावनी दे डाला। नहीं माना तो पिटाई की चटनी चटा दी। पिटाई की चटनी ऐसी होती है कि एक बार जिसने चाट ली। फिर वह भूलकर भी इश्क चाट भंडार की ओर नहीं देखता। 

ऐसी प्रवृत्ति का व्यक्ति अकेला यही ही नहीं है। आपके भी आसपास में कोई ना कोई जरुर होगा। अगर नहीं है तो आप स्वयं होंगे। चौंकिए मत। अपनी मूँछों पर हाथ फेरकर देखिए और उस बाल को पकड़िए जो मूँछ के बालों का बाप है। मूँछ नहीं है तो कतई शर्मिंदा मत होइए। ऐसा नहीं है कि बिना पूछ की घोड़ी अच्छी नहीं लगती है तो बिना मूँछ का मर्द भी अच्छा नहीं लगता है। आज के दौर में तो बिना मूँछ वाला ही अच्छा लगता है। यकीन नहीं हो तो अपनी घरवाली या प्रेमिका से पूछ लीजिए। खैर छोड़िए,मूँछ नहीं है तो क्या हुआनाक तो है। नाक को तो कोई भी मूँछों की तरह कतरनी से नहीं काटता है। इसलिए नाक को निहार लीजिए। उसका अक्‍स दिख ही जाएगा।

मोहनलाल मौर्य 


25 Oct 2020

अच्छाई और बुराई में लड़ाई

देखते ही देखते तू-तू मैं-मैं से हुई तकरार हाथापाई पर उतर आई। बीच-बचाव में गए सज्जन गाली-गलौज की गोलियों से घायल होकर वापस लौट आए। पर बुराई बाई और अच्छाई ताई की ओर से गालियों की गोलाबारी शांत नहीं हुई। बल्कि हावी होती गई और लड़ती-झगड़ती बीच सड़क पर आ गई। तमाशबीन भीड़ छुड़ाने के बजाय खड़ी-खड़ी तमाशा देखने में मशगूल थी। मैं बीच-बचाव में इसलिए नहीं कूदा कि औरतों की लड़ाई हैं। कहीं भारी नहीं पड़ जाए। कोर्ट-कचहरी के चक्कर नहीं काटने पड़ जाए। पर वहाँ पर औरतें भी काफी थी। जिनमें से छुड़ाने के लिए एक भी आगे नहीं आ रही थी।

कई भाई लोग तो अपने मोबाइल से इस तरह वीडियो बना रहे थे। जैसे कि किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे हो। मैंने एक भाई साहब से पूछा भी आप वीडियो क्यों बना रहे हैंभाई साहब ने पहले तो मेरी ओर घूर कर देखा और फिर बोला,'आपको क्या आपत्ति है?' 'मुझे कोई आपत्ति नहीं है पर किसी का इस तरह वीडियो बनाना अच्छी बात नहीं है।यह सुनकर वह बोला, 'मैं ही अकेला थोड़ी बना रहा हूँ और भी तो बना रहे हैं। इसलिए मैं भी बना रहा हूँ।मैंने उससे पूछा,'बनाकर क्या करोगे?'वह तपाक से बोला,'सोशल मीडिया पर वायरल करूंगा। तुम इतने सवाल-जवाब क्यों कर रहे होयह दोनों क्या तुम्हारी सगी संबंधी हैं। 'मैंने कहा, 'नहीं हैं।तो फिर साइड हटो। और मैं साइड में हो गया।

तमाशबीन भीड़ में से मुट्ठी भर लोग यह जरूर पूछ रहे थे कि दोनों के बीच हुज्जत हुई कैसेभीड़ में से पता चला कि अच्छाई ताई ने बुराई बाई को यह कह दिया था कि आज रावण दहन के पुतले के साथ बुराई भी जलकर खाक हो जाएगी। बस यह सुनकर ही बुराई बाई आग बबूला हो गई और गालियों की झड़ी लगा दी। काफी देर तक तो अच्छाई ताई सुनती रही। जब नहीं-नहीं मानी तो चोटी पकड़कर दो-चार थप्‍पड़ रसीद कर दी। फिर क्‍या थादोनों में गुत्‍थमगुत्‍थी हो गई और लड़ती-झगड़ती घर से सड़क तक आ गई। 

बुराई बाई अच्छाई ताई को जो मुँह में आया वही बकी जा  रही थी। तू अच्छाई ही होकर भी क्या कर पाईमुझे देख मैं चुटकियों में असंभव को भी संभव कर देती हूँ। तू क्या समझती है रावण के पुतले के साथ जलकर खाक हो जाती हूँ। यह तेरा भ्रम है और मेरी कलाकारी हैजो कि मैं तुम जैसे लोगों की आँखों में धूल झोंककर साइड से निकल जाती हूँ। मैं वह बुराई हूँ जो कभी खत्म नहीं होने वाली। एक बार तू मुझे छोड़फिर बताती हूँमैं क्या बला हूँ। अच्छाई ताई उसका हाथ मरोड़ती हुई बोली,'तू चाहे जो भी बला हो। मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। आज मैं तुझे तेरी औकात बताकर ही रहूंगी। यह तो शुक्र है कि वक्त पर एक ओर से अच्छाई ताई की बहन 'भलाईआ गई और दूसरी ओर से बुराई बाई का भाई 'बुराआ गया था। जिन्होंने आते ही दोनों को अलग-अलग कर दिया। अन्यथा तमाशबीन भीड़ के भरोसे तो न जाने क्या अनर्थ हो जाता। बुरा भाई बुराई बाई को धमकाते हुए बोला,' तेरे अंदर थोड़ी बहुत भी लाज शर्म है या नहीं। इतनी बड़ी बूढ़ी के साथ हाथापाई पर उतर गई। तुझे पता भी है आखिरकार जीत अच्छाई की होती है और अच्छाई ताई अच्छाई के सब गुण विद्यमान है। चल घर पर तेरी खबर लेता हूँ।




15 Sept 2020

अरे विकास तू छुपा है कहां

 

कई दिनों से विकास गायब है। जगह-जगह ढूँढ लिया। अभी तक कोई खोज-खबर नहीं। मन में विचार कौंधा  कहीं विकास का किसी ने अपहरण तो नहीं कर लिया। यही सोचकर मैं थाने जा पहुँचा। जाते ही थानेदार साहब से पूछा,‘साहब! आपके यहाँ पर विकास नाम से गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज है क्या?’ 

यह सुनकर थानेदार साहब बोले,'पहले तो आप कुर्सी पर बैठिए।

रोजनामचा को देखकर बोले-यहाँ तो इस नाम से गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई है।’ 

मैंने एक बार ओर निवेदन किया-साहब अच्छी तरह से देखकर बताए। शायद रिपोर्ट दर्ज हुई होगी। विकास का इस तरह से लापता होना। आमजन के लिए चिंताजनक है। इसके लापता होने से आमजन का हाल बेहाल है।’ 

यह सुनकर थानेदार साहब चकित रह गए और बोले,'भाई क्या बोल रहे हैं आपआप किस विकास की बात कर रहे हो। आखिर यह विकास क्या भला हैमैं समझा नहीं।

मैंने कहा-साहब! विकास के बिना विकास अधूरा है।’ 

सुनकर थानेदार साहब चौंके और बोले,‘अच्छा-अच्छा तो आप उस विकास की बात कर रहे हो। अरे,भाई! उस विकास के बारे में तो भला क्या बता सकता हूँ?बलात्कार,चोरी,डकैती,लूट-पाट,मारपीट की कोई बात हो तो बताओं हम ढूँढ कर बताते देंगे।

साहब ! रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई है,तो अब कर लीजिए।’ मैंने एक बार फिर से निवेदन किया।

थानेदार साहब बोले-जिसका कोई अता-पता नहीं। उसकी रिपोर्ट कैसे दर्ज करेतुम्‍हीं बताओं!’ 

मैं क्‍या बताता ? चुपचाप चला आया।

थाने से बाहर निकला तो मन में विचार कौंधा। अगर अपहरण हुआ होगा तो किसी डाकू ने बीहड़ इलाके में छुपा रखा होगा। यही सोचकर थाने से सीधा चम्बल के बीहड़ में गया। डाकूओं के भय से भयभीत था। भय था कही कोई डाकू आकर कनपटी पर बंदूक नहीं तान दे। कुछ कह पाऊं उससे पहले टपका नहीं दे। बीहड़ इलाको में जाना हथेली पर जान रखकर जाना होता है। पर मुझे विकास को ढूँढ़ना था। बड़ी मुश्किल से डरता-डरता गया। एक-एक डाकू से पूछा विकास तुम्हारे पास है क्यापर सबने इनकार कर दिया। 

एक डाकू ने अवश्य पूछा-‘ जरा विकास का हुलिया तो बताओं। उसकी कद-काठी,रंग-रूप,उम्र,क्या हैदिखता कैसा है?’ 

दरअसल मैंने भी कभी विकास को देखा नहीं। मैं क्या बताताउसे देखा होता तो थानेदार साहब को ही बताकर रिपोर्ट दर्ज करवा देता।

मैं बोला-विकास को देखा तो मैंने भी नहीं।’ 

इस पर पहले तो वह शोले के गब्बर की तरह हंसा। फिर बोला-जब तुमने विकास को देखा नहीं तो ढूँढ़ने क्यूँ चले आएविकास से तुम्हारा रिश्ता क्या है?’ 

मैंने कहा-खून का रिश्ता तो नहीं है और न दिल का रिश्ता है। मानवीयता का रिश्ता है।’ 

तुम भी अजीब आदमी हो। नहीं खून का रिश्ता है  और नहीं दिल का। मानवीयता के नाते यहाँ तक चले आए। मान गए भाई! तुम्हें डर नहीं लगा। लेकिन यह विकास है कौन?'

कहीं आप मजाक तो नहीं कर रहे हैं। विकास को सब जानते है। आप नहीं जानते हैं। डरते हुए बोला।

डाकू बोला,' नहीं जानता हूँ। तभी तो पूछ रहा हूँ।

मैं जिस विकास ढूँढ रहा हूँ। वह वही हैजिसके बारे में नेतागण चुनावी दौर में लंबी चौड़ी बातें करते हैं।

इतना सुनकर डाकू जोर-जोर से हंसने लगा। बोला,‘वह विकास बीहड़ों में नहीं। इस वक्त जहाँ चुनाव है। वहाँ ही मिलेगा।

मैं वहाँ पहुँचा जहाँ चुनाव होने थे। वहाँ किसी नेताजी की रैली निकल रही थी तो किसी का भाषण चल रहा था। जिधर देखों उधर ही माहौल चुनावी रंग में रंगा हुआ था। चुनावी रंग-बिरंगे माहौल में विकास को ढूँढ़ना घास में सुई ढूँढ़ना था। 

कई नेताओं से भी पूछताछ की  पर किसी ने भी संतुष्टजनक जवाब नहीं दिया। बड़ी मुश्किल से एक माननीय ने मुँह खोला ‘विकास उन सड़कों पर मिलेगा। जिनका मैंने निर्माण करवाया है और उद्घाटन किया है। वहाँ नहीं मिले तो उस गाँव में मिलेगा। जिसको मैंने गोद लिया है। अगर वहाँ भी नहीं मिले तो विकास सामुदायक भवन में मिलेगा। मैंने गत दिनों ही उद्घाटन किया है।’ 

माननीय ने जहाँ-जहाँ बताया,वहीं जाकर देखा पर कहीं भी नहीं मिला। 

एकाएक एक चुनावी घोषणा पत्र पर मेरी नजर पड़ी। मैंने देखा कि घोषणा पत्र में लोक लुभावानी योजनाओं के साथ विकास भी छुपा बैठा था। दुबला-पतला,तिखे नैन नक्ष,हिरण सी आँखे,घने काले बाल,पर उसके चेहरे पर चमक थी।

मैंने पहली बार विकास को देखा था। मैं भागकर उसके पास गया और उससे पूछा-क्‍या तुम्‍हीं विकास हो।’ 

उसने पहले तो मेरे को निहारा फिर बोला-हाँ मैं ही विकास हूँ।’ 

मैंने कहा-तुम्हें कहा-कहा नहीं ढूँढ़ा और तुम हो कि यहाँ दूबे पड़े हो।’ 

वह बोला-मैं यही ठीक हूँ।

तुम जाओं। ओर किसी को बताना मत। मैं यहाँ पर हूँ।’ 

मैंने उसको समझाते हुए बोला-तुम्हारी जगह यहाँ नहीं है। वहाँ है,जहाँ तुम्हें होना चाहिए।

यह सुनकर वह बोला-वहाँ जाकर क्या करूंगाजहाँ हर कोई ताना मारता है। यहाँ विविध योजनाओं और वायदों के साथ खुश तो हूँ।

मैंने विकास को बहुत समझाने की कोशिश की पर वह नहीं माना। मैं उसको घोषणा पत्र में देखकर इसलिए चला आया। चलों आखिरकार विकास मिल तो गया। अन्यथा पाँच साल तक ढूँढ़ना पड़ता।

 


11 Aug 2020

मैं नहीं बदला,मुझे बदल डाला

आप बदल गए हैं। यह पत्नी का कहना था। घर में रहना है,तो पत्नी के कथन में हाँ में हाँ और ना में ना मिलाना ही पड़ता है। नहीं मिलाए तो वैवाहिक जीवन तू-तू मैं-मैं में व्यतीत होगा। इस सबसे तनाव होगा। तनाव होगा तो खींचतान होगी। खींचतान होगी तो प्रेम का धागा टूटेगा। एक बार धागा टूट गया तो वापस जोड़ने के लिए फिर गाँठ ही लगती है। कई ऐसे भी धागे होते हैं, जिनमें गाँठ भी नहीं लगती। उनकी सीधी कोर्ट में पेशी लगती है। अधिकतर पेशियों का अंतिम परिणाम वही तीन बार बोलने वाला कुछ होता है,जिसके पीछे पड़ने वाले उसे लेकर ही रहते है।

मुझमें ऐसा क्या बदलाव आ गया,जो मुझे ही दिखाई नहीं दे रहा है और पत्नी को दिख रहा है! न मोटा हुआ हूँ ,न दुबला। न स्वभाव बदला है,न रंग-रूप। मूँछें भी इंची टेप से नापकर ही कटवा रहा हूँ। सोचा पत्नी से ही पूछ लेता हूँ। सो मैंने पूछ ही डाला।

वह बोली,‘देखिए जी! कई दिनों से देख रही हूँ कि...मुझ चिर- जिज्ञासु ने बीच में ही टोक दिया,‘क्या देख रही हो?’ वह फिर बोली,‘ यही कि आप बदल गए हैं।अब मेरा गुस्सा होना नैतिक रूप से जायज था,मगर पत्नी के सामने कैसी नैतिकता। नैतिकता के सारे मानदंड पत्नियों के सामने ही तो टूटते हैं! इसलिए मैंने अपना गुस्सा लोकसभा स्पीकर की तरह पीते हुए मन व झक, दोनों मारकर कहा,‘हें...हें...हें... कहाँ बदला हूँ पगली, वैसा का वैसा तो हूँ। देख जरा! वही चाल वैसा ही बेहाल!

मेरी नकली मुस्कराहट को उसने वैसे ही लपक कर पकड़ लिया, जैसे दीवार पर छिपकलियां मासूम मच्छरों को धप से पकड़़ लिया करती हैं। मुझे गिरफ्त में आता और गिड़गिड़ाता देख मुझ गुलाम पर उसने तुरुप का इक्का चला दिया, ‘ तुम्हारी ओर वही चाल। सवाल ही नहीं।बेवजह ही बवाल खड़ा नहीं हो जाए। बवाल हो गया तो जल्दी सी बहाल नहीं होगा। यही सोचकर मैंने विनम्रता से पूछा, ‘तो फिर कैसा हूँ?’ 

वह बोली,‘इतने भोले-भाले भी मत बनो। तुम्हें सब पता है। कैसे हो। कैसे नहीं हो। मुझसे पूछने से क्या कैसे के ऐसे और ऐसे के कैसे बन जाओगे क्यातब तो बताऊं कैसे हो?’

मैं तपाक से बोला,‘बताइए! तुम कहोगी जैसा ही बन जाऊंगा। बहरहाल तो बना हुआ भी हूँ।वह  बोली,‘रहने दीजिए। मेरे मुँह से वो सच निकल आएंगा,जो सच है।’ 

मुझे सच ही जानना है।’ ‘तो कान खोलकर सुनिए।’ 

मैंने चुटकी लेते हुए कहा,‘कान ही क्यामुँह व आँख भी खोल रखे हैं। बस जल्दी सी सुना दीजिए।’  

पहले तो यह बताइए! मुझसे प्यार क्यों नहीं करते हो। जबकि पहले बेहद प्यार करते थे।’  

मैं बोला,‘तुम्हीं ने कहा था कि घर प्यार-प्रेम से नहीं,पैसों से चलता है। पैसा प्रेम से नहीं। कमाने से आता है। कमाई मेरी लुगाई नहीं। जो कि जेब में आकर समा जाए। यह  पटाने से भी नहीं पटती है। दौड़-धूप से फंसती है। तब दो पैसे जेब में आते हैं। जिनसे घर का चूल्हा जलता है। आजकल पैसे से प्यार है। प्यार से पैसा नहींहै।जिसकी जेब में पैसा है। उसकी मुहब्बत फलीभूत है। जिसकी में नहीं है। उसकी निष्फल है।’  

यह सुनकर वह लाल-पीली हो गई। बोली,‘मुझे प्यार-प्रेम की परिभाषा मत समझाइए। मैं वाकिफ हूँ। पहले देसी में बोलते थे। अब अंग्रेजी की टांग तोड़ते हो।मैं बोला,‘यह भी तुम्हीं ने कहा था कि तुम्हारे को बोलने का ढंग सही नहीं है। हिंदी में बोलिया करो। हम हिंदी बोलेंगे। तभी तो बच्चे बोलेंगे।’ ‘हाँ कहा था,मगर आप तो अंग्रेजी में न जाने क्या-क्या बोल जाते हैं,जो मेरे तो पल्ले नहीं पड़ती है।’ ‘अपने बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ते हैं। इसलिए बोलना पड़ता है। ए डबल पी एल ई एप्पलएप्पल यानी सेब। बीओवाई ब्वॉय,ब्वॉय यानी लड़का। सीएटी कैट,कैट यानी बिल्ली। यह नहीं बोलूं तो बच्चे खिल्ली उड़ाते हैं। पापा को इंग्लिश नहीं आती है। बच्चों के सम्मुख इज्जत का फ़ालूदा नहीं बने। इसलिए बोलता हूँ।

पत्नी बोली,‘बच्चों के समक्ष तो ठीक है। मगर अहर्निश मुझे खटकती है। पहले सादा पेंट शर्ट पहन कर रहते थे।

अब तो जींस टी-शर्ट के अलावा कुछ ओर पहनते ही नहीं हो।मैं बोला,‘तुम्हारी याददाश्त कमजोर हो गई है। तुम्हीं ने तो कहा था कि सादा पैंट-शर्ट नहीं,जींस टी-शर्ट पहनकर रहा करो। इससे पर्सनैलिटी बनती है। तुम पर जमती भी है। इसलिए पहनता हूँ। जो कि मुझे असहज लगता है। मगर तुम्हारी खातिर सहता हूँ।

पत्नी बोली,‘सहता है। वह कहता नहीं। निकालकर फेंक देता है। कई दिनों से देख रही हूँ। आजकल आप बहुत खिले-खिले रहते हो।

मैं चौंका!... और मैं क्या, मेरी सात पुश्तें चौंक गई। मैं तुरंत बोल पड़ा,‘तुम ही तो कहती थी,सूमड़े- सट्ट मत रहा करो,थोड़ा बोला-चाला करो,लोग पीठ पीछे आपको आलोकनाथ बोलते हैं। जब तुमने इतना सब कहा था तो अपन थोड़ा हँसने-बोलने लगे।

हाँ,हंसो-बोलो,मगर इतना भी खुश मत रहो कि लोग मुझ पर शक करने लगें?’ 

इस बार मुझे अपनी सगी पत्नी,पत्नी वाले रोल में दिखाई दी। वह पत्नी ही क्या, जो पति को खुश रह लेने दे! मैं उसकी यह पीड़ा समझ गया था कि मैं उसका पति होने के बावजूद पीड़ित जैसा क्यों नहीं लग रहा था! मैंने तुरंत अपना सॉफ्टवेयर बदला। उस दिन से मैं फिर सूमड़ा-सट्ट हो गया।


9 Aug 2020

मुझे भी खुद को दिखाना है

कई दिनों से सोच रहा हूँ कि सोशल मीडिया पर लाइव आऊं,लेकिन यही सोचकर रह जाता हूँ कि अपनी शक्ल-सूरत शायद लाइव होने लायक नहीं। सुना है कि जिनकी सूरत खूबसूरत होती है,सिर्फ वही लाइव आते हैं। उन्हें ही ज्यादा लाइक और कमेंट का प्रसाद मिलता है। भले ही वे यूं ही लाइव हुए हों। यह भी सुना है कि लाइव के लिए शक्ल-वक्ल मायने नहीं रखती। बस लाइव आने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिए। हाँ,लाइव पर लाइक नहीं मिले तो लाइव आना ही बेकार है। इससे मेरी दुविधा और बढ़ गई। फिलहाल मैं इसी उधेड़बुन में हूँ कि लाइव आने का आखिर मकसद क्या हो और बिना उद्देश्य न हो क्या करूं-क्या कहूं? ऐसा क्या करूं कि सोशल मीडिया में अपना चेहरा दिखाऊं

लाइव बोले तो जिंदा। विमर्श यह कि मुद्दा सामयिक हो या असामयिक। सामाजिक हो या राजनीतिक। ऐतिहासिक हो या साहित्यिक। आर्थिक हो या धार्मिक।  सहिष्णु हो या असहिष्णु। एलोपैथिक हो या आयुर्वेदिक। या फिर इनसे अलग ही हो। अलग क्या होअलग हो तो ऐसा होजो कि अलख जगा दे। बिना वायरस के पहली लाइव में ही लाइफ बना दे। किसी वायरस की वजह से लाइव हुए तो क्या हुए। लाइफ बेवजह खतरे में डालकर चर्चित हुए तो यह भी कोई वायरल होना हुआ।

मेरे मित्र मुझे बता रहे हैं- समझा रहे हैं कि लाइफ में लाइव नहीं आया, दुनिया को अपना चेहरा नहीं दिखाया तो सोशल मीडिया की दुनिया में रहना ही निरर्थक है। ज्यादा नहीं तो एक लाइव तो बनता है। इस आभासी दुनिया में लाइव से ही पहचान बनती है। लाइव से ही वाइफ खुश रहती है। वाइफ खुश तो सारा जहां खुश। लाइव से फेसबुक फ्रेंड का बैकग्राउंड दिख जाता है। बगैर लाइव के फ्रेंड के बारे में कुछ भी पता नहीं लगता। वह कैसा दिखता है? किस टाइप का है? लाइव से उसका रूपरंग,हाव-भाव से परिचित हो जाते हैं। फैन बन जाते हैं।

मित्र ने तो यहाँ तक कहा है कि आजकल लाइव ही वह  मिसाइल है,जिसके जरिए व्यक्ति चाँद तक पहुँच जाता है। मैं हूँ कि गली के नुक्कड़ तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ। चाँद तक न सही,आसमान छूने की तमन्ना तो मेरी भी है,लेकिन मैं हूँ कि लाइव आने-चेहरा दिखाने में हिचकिचा रहा हूँ। समझ में नहीं आ रहा है कि लाइव आने के लिए ऐसा क्या करुं जिससे कि मेरी हिचक दूर हो जाए और मैं लाइव आ जाऊं। 

मन कह रहा है कि तू साहित्यकार है नतो क्यों न उसे ही आजमाएकविता,गीत,गजल,व्यंग्य या कहानी में से किसी एक को लेकर लाइव आ और सुर्खियों में छाजा।लाइव आने को मोबाइल हाथ में लेता हूँ,तो एक मन कहानी के लिए और और दूसरा मन व्यंग्य के लिए। मुझे गीत गजल तो आती नहीं। कविता लेकर इसलिए नहीं आना चाहता,क्योंकि अभी कविता सुनने वाले श्रोता कम और कवि लाइव ज्यादा आ रहे हैं। ऐसे में मुझ अकिंचन की कविता के लाइव को देखना-सुनना तो दूर एक लाइक तक नहीं मिलेगा। कहानी और व्यंग्य में कहानी मुझे कहनी नहीं आती  और व्यंग्य हर किसी के समझ में नहीं आता है। यह सोच कर लाइव नहीं आ पा रहा हूँ।

हालांकि राजनीति की समझ नहीं है। अन्यथा राजनीति को लेकर बिना किसी हिचकिचाहट के लाइव आ जाऊं। और बेतुके बयान देकर सुर्खियों में छा जाऊं। सोच रहा हूँ कि किसी न किसी सामाजिक विषय को लेकर लाइव आ जाऊं,लेकिन सामाजिक विषय तो तमाम हैं। उनमें चयन नहीं कर पा रहा हूँ कि किस विषय को लेकर लाइव का प्रयास करूंक्योंकि मैं ऐसे विषय के साथ लाइव आना चाहता हूँ जिसके साथ अभी तक कोई भी लाइव नहीं आया हो। लाइफ में पहला लाइव ऐसा हो कि कोई वाह किए बगैर न रहे। वैसे तो तमाम  विवादस्पद मुद्दे हैं,लेकिन मुझे सर्वसम्मति वाला कोई विषय दिख नहीं रहा है। अगर आपको दिख रहा है तो मुझे अवश्य बताइएगा,ताकि मैं अविलंब लाइव आ जाऊं।

मोहनलाल मौर्य 

4 Aug 2020

बड़ा आदमी और गांधीजी

वह बड़ा आदमी है। इतना बड़ा है कि बड़े-बड़े भी उसके चरण स्पर्श करते हैं। अपने आपको उसके चरणों की धूल बताते हैं। मगर मेरा मानना है कि जो स्वयं को उसके चरणों की धूल बताते हैं,वे या तो स्वयं मूर्ख हैं या दूसरों को मूर्ख बनाते हैं। क्योंकि वे स्वयं की शिनाख्त जिस आदमी के चरणों की धूल होने में करते हैं,उसके चरणों में तो धूल कभी होती ही नहीं है। अगर कभी भूल से जरा धूल लग भी जाएतो पोंछने- चाटने वाले धूल का एक कण भी नहीं छोड़ते। फिर वे चरणों की धूल कैसे हुएयह समझ से परे है और परे ही रहेगा। वैसे ऐसी घटिया बातों को धूल में ओटकर भूल जाना ही अच्छा।
मगर लोग कहते हैं कि उस आदमी, जिसके पैरों में धूल बताई गई थी, के आदेश को बड़े से बड़े लोग सिर- आँखों पर रखने से इंकार नहीं करते। क्यों करेगा? दरअसल,उसके आदेश के साथ गांधीजी जो चस्पा होते हैं। गांधीजी किसे बुरे लगते हैं। सबको अच्छे लगते हैं। और जो चीज अच्छी लगती है,लोग सिर-आँखों पर ही नहीं, माथे,मगज,जेब से लेकर बैंक अकाउंट तक में भी रखने से कभी इंकार नहीं करते।
उस बड़े आदमी का नाम इतना बड़ा नहीं है कि उसके नाम से काम हो जाएं। हाँ,मगर जब उसके नाम के पिच्छू गांधीजी का सरनेम लग जाता है तो फिर उसका कोई काम नहीं रुकता। वह अपने काम निकालने के लिए सामने वाले को गांधीजी के दर्शन करवाता है। सामने वाला भी दर्शन करते ही सत्य और अहिंसा टाइप की चीजें ऊपर वाली दराज से निकालकर, उन्हें सैनिटाइजर करके नीचे वाली दराज में खिसका देता है। और फिर ऊपर वाली दराज में गांधीजी को रख लेता है। उसके सत्य और अहिंसा तब तक नीचे वाली दराज में नहीं जाते,जब तक की गांधीजी ऊपर वाली दराज में नहीं आ जाते।
दरअसल,उस बड़े आदमी का गांधीजी में बहुत विश्वास है। बल्कि यूं कह लीजिए कि उसके पास गांधीजी का इतना अधिक टर्नओवर है कि लोग अब उसमें विश्वास करने लगे हैं। लोगों ने उसका टर्नओवर देख उसकेे प्रति अपनी हिकारत को यू-टर्न करवा दिया है। वह गांधीजी का छोटा नहीं बल्कि बड़ा अनुयायी है। बड़ा इस मायने में है कि वह छोटे काम में हाथ डालता ही नहीं। बस सामने वाले के मुँह पर बड़ेे-बड़े गांधीजी फेंकता है और बड़े काम निकलवा लेता है। छोटे काम उसे अपनी और गांधीजी, दोनों की तौहीन लगते हैं। वह गांधी के दर्शन और गांधी के प्रदर्शन दोनों में गहन विश्वास रखता है। दरअसल,पहले वह बहुत छोटा आदमी था। मगर गांधीछाप हरी पत्ती के हेर-फेर में वह इतना बड़ा हो गया कि अब पहले से भी और छोटा,और बोना हो गया है।
उसने आज तक गांधीजी को कभी पढ़ा नहीं है, बस देखा है। उसके लिए इतना ही पर्याप्त है। गांधीजी को पढ़कर करता भी क्या? ऐसा उसका जमीर अक्सर उससे कहता रहता है। हाँ, लेकिन जिस शिद्दत से उसने गांधीजी को देखा और फिर उनका सदुपयोग किया है, वैसा गांधीजी स्वयं का नहीं कर पाए होंगे।
गांधीजी अक्सर उसके सपने में आते हैं, बल्कि वह तो जागते हुए भी गांधीजी के ही सपने देखता है। उसने खुद ही नहीं बल्कि अपने नाते-रिश्तेदारों को भी गांधीजी के ही सपने देखने की लत-सी लगा दी है। रिश्तेदार भी अब सरकारी टेंडर का फॉर्म डालने से पहले गांधीजी का स्मरण करते हैं और फिर टेंडर का चयन करने वाले अधिकारी को गांधीजी का स्मरण करवा डालते हैं। अब गांधीजी का कहा कौन टाल सकता है भला! इसलिए गांधीजी का नया,गच्च-भक्त बना वह अधिकारी भी गांधीजी की बात नहीं टालता और बड़ा आदमी मुस्करा देता।

2 Aug 2020

सावन-भादों की सीख



रोज कोयल कुकू-कुकू कर कह रही है कि सावन आ गया है,घर से बाहर निकलिए और चौतरफा छाई हरीतिमा को निहारिए,पर उसकी कोई नहीं सुन रहा है। सब अपने-अपने कार्यों में इस तरह से उलझे हुए हैं कि अपनों की नहीं सुन रहे हैं,कोयल की क्‍या सुनेंगे! वह लोगों के कानों में भी कूकने लग जाए,तब भी नहीं सुनेंगे। आजकल लोगों को कर्णप्रिय के बजाय कानफोड़ू ज्यादा प्रिय है।
अब मोर जंगल में ही नहीं,घरों की छत पर भी नाच रहे हैं। पीहू-पीहू करके लोगों को बुला भी रहे हैं कि आइए,और हमारा नृत्य देखिए। फिर भी लोग उनका नृत्य नहीं देख रहे हैं। शायद इसीलिए लोगों का मन मयूर की तरह नहीं हो पा रहा है। जब तक मनुष्य का मन मयूर की तरह नहीं होता है,वह सावन-भादों का भी आनंद नहीं उठा पाता है।
हमेशा सावन-भादों में मेंढक टर्र-टर्र करते हुए घरों के अंदर यह बताने के लिए घुसते हैं कि टर्र-टर्र हमें ही शोभा देती है,तुम्हें नहीं,लेकिन मनुष्य है कि टर्र-टर्र किए बगैर रह ही नहीं रहा है। जब देखों टर्र-टर्र करता रहता है,जबकि मेंढक बारिश के मौसम में ही टर्र-टर्र करते हैं।
सावन-भादों में नाग-नागिन नृत्य करके यही बताने में व्‍यस्‍त रहते हैं कि ब्याह-शादी में लोग हमारी नकल करके जमीन पर पलटी मारकर जो नागिन डांस करते हैं,वह नागिन डांस नहीं होता है। जिस तरह से हम कर रहे हैं,वह होता है। लेकिन,लोग उनके नृत्य को देखना तो दूर,उन्हें देखकर ही सहम जाते हैं। असल में नाग-नागिन डसने के लिए नहीं,बल्कि नागिन डांस सिखाने के लिए नृत्य करते हैं।
सावन-भादों के महीने में मेघ मेहरबानी करके बारिश ही नहीं करते हैं,बल्कि मेहरबान किस तरह से हुआ जाता हैं,यह दिखाने के लिए भी कई बार झड़ी लगा देते हैं। हम हैं कि मेहरबानी तो दूर,दुआ-सलाम भी स्वार्थ से ही करते हैं। शायद इसीलिए मेघ हम पर जल्दी से मेहरबान नहीं होते हैं। वे गरजने के बावजूद यही सोचकर नहीं बरसते होंगे कि हम तो इन पर मेहरबान हो जाते हैं और ये लोग हैं कि होते ही नहीं है।
हवा में उड़ने वालों को सावन-भादों के महीने में चलने वाली मंद-मंद हवा यही समझाने में लगी रहती कि हवा में उड़ने से अच्छा है कि जमीन पर पैर रख कर ही अपने कार्यों को अंजाम दिया जाए। धड़ाम से नीचे गिरोगे तो जमीन के अंदर ही धंस जाओगे। लेकिन,लोग हैं कि समझते ही नहीं। हवा में बातें करने और हवाई किले बनाने से डरते ही नहीं है।
सावन-भादों के महीनों में घर-दालान में आने वाली सीलन भी हमें यही सीख देती है कि आलीशान मकान बनाने से ही कुछ नहीं होता है। समय-समय पर उसकी मरम्मत भी बहुत जरूरी है। सीलन ही है,जो हमें  मरम्मत कराने पर विवश कर देती है। अगर सीलन नहीं आए,तो हम दीवारों की ओर देखें ही नहीं। जो बरसात के दिनों में सीलन को देख कर भी अनदेखी कर देता है,उसके मकान धराशायी होकर ही रहते हैं।
इसी तरह नदी और नाले उफान पर आकर हमें यही बताते हैं कि गुस्से में कुछ नहीं रखा है। गुस्से में केवल अपनी और दूसरों की तबाही हैं। एक बार तबाह होने पर उसकी भरपाई में वर्षों लग जाते हैं। लेकिन,हम हैं कि नदी और नाले के उफान को देखकर भी अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। 
इन दोनों महीनों में प्रकृति हरी चुनरी ओढ़कर हमें यही बताने आती है कि हरियाली से ही खुशहाली है। लेकिन,हम हैं कि हरियाली का संहार करने में लगे हुए हैं। पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने से पहले एक बार भी नहीं सोचते हैं कि इनकी वजह से ही हरियाली है। जिनके आसपास हरियाली नहीं,वहाँ खुशहाली कैसे आएगी! जहाँ खुशहाली नहीं होगी,वहाँ पर घरवाली भी खुश नहीं होगी। जिस घर में घरवाली खुश नहीं,उस घर में सावन-भादों भी यादों में ही निकल जाते हैं। शायद इन्‍हीं यादों को संजोने के लिए ही सावन-भादों में वृक्षारोपन किया जाता है। 
मोहनलाल मौर्य

19 Jul 2020

Saavan and frog


Every day the cuckoo is saying cuckoo, that the spring has come, get out of the house and look at the all-round greenery. But nobody is listening to him. All are entangled in their respective actions in such a way that they are not listening to their loved ones. Even when a cuckoo starts crying in people's ears, they will not listen. Because nowadays people are more fond of earrings than Karnapriya.
Now peacocks are dancing not only in the jungle but also on the roof of houses. People are even calling people after drinking. Come and see our dance. Still people are not watching their dance. Perhaps this is why people are not able to feel like Mayur. As long as the human mind is not like a peacock, he does not even enjoy the sawn bhads.
Forever the frogs enter the homes of the savannahs to tell them that it is their beauty that does not suit you. But there is no human being that is not living without a twist. When you see, then it keeps on talking. Whereas frogs tend to tread in the rainy season.
In Saavan Bhadas, Nag-Nagin dances by telling them that in marriage, people imitate us and dance on the ground and dance on the ground, and they do not dance the serpent. The way we are doing it does not happen. But people are scared to see their dance and away from them. Whereas serpent-nagins dance not to dance, but to teach serpent dance.
In the month of Sawan Bhadas, the clouds do not show their mercy, but they show themselves the way they show them, and sometimes showers. We are far from obliged, but we also do self-interest. Perhaps this is why the clouds are not kind to us soon. Despite the thunder, they will not rain thinking of this, we are kind to them and it is people that do not exist.

The wind that blows in the month of Sawan Bhadas to the wind blowers will be able to convince them that it is better to fly in the wind, do your tasks only by keeping a foot on the ground. Otherwise, you will fall down from the pit, neither will you sink inside the ground. But people don't understand that. There is no fear of talking in the air and building an air fort.
In the months of the monsoon months, the dampness that comes in the house-hallway also teaches us that nothing happens by building luxurious houses. Periodic repairs are also very important. It is the dampness that compels us to repair. If the damp does not come, then we do not look at the walls. Who does not ignore the seals even during the rainy days, nor does his house remain dashed.
Similarly, coming to the river and drain, it tells us that nothing is kept in anger. Anger is the destruction of ourselves and others like us. Once devastated, it takes years to recover. But we are not able to control our anger even after seeing the river and rivulets.
Mohanlal maurya