24 Mar 2020

वरना यह हाथ धोकर पीछे पडे़गा


सोशल मीडिया से पता लगा है कि कोरोना वायरस कोई ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा नहीं है। न बेशर्म है, न आदत से लाचार। स्वाभिमानी और आत्मसम्मान वाला वायरस है। जब तक आप घर से बाहर नहीं निकलेंगे, वह घर के अंदर नहीं आएगा। घर से निकल गए, तो बंदर की तरह उछलकर घर के अंदर आ जाएगा और बंदर की तरह ही उत्पात मचाएगा। एक मित्र का सुझाव है कि भविष्य में अपनों के पास रहना है, तो कुछ समय के लिए दूरियां बनाकर रहिए। अगर दूरी बनाकर नहीं रहेंगे, तो कोरोना नजदीकी का फायदा उठा लेगा। यह फायदा उठाने में बहुत ही उस्ताद है।
सरकार की गाइडलाइन फॉलो करें, अन्यथा कोरोना आपकी सेहत को अनफॉलो कर देगा। बचाव ही उपाय बताया जा रहा है। बचाव न किया, तो कोरोना का बर्ताव बहुत बुरा है। खांसी या छींक आए, तो मुंह पर तुरंत रूमाल लगाइए, नहीं लगाएंगे, तो कोरोना अपना कमाल दिखाए बगैर नहीं रहेगा। मुंह पर मास्क लगाकर रहिए, वरना कोरोना माफ नहीं करेगा। किसी से भूलकर भी हाथ मत मिलाइए, वरना कोरोना हाथ पकड़कर खींच लेगा। बार-बार साबुन या हैंडवॉश से हाथ धोते रहिए। अगर हाथ धोने में जरा सी भी कोताही बरती, तो कोरोना हाथ धोकर पीछे पड़ जाएगा। पीछे पड़ गया, तो कहीं भी चले जाइए या छिप जाइए, यह पीछा नहीं छोडे़गा। पकड़कर ही रहेगा। इसने पकड़ लिया, तो उससे छुड़वाना बहुत ही मुश्किल है। लॉकडाउन में लोकगीत गाकर टाइम पास कर लीजिए, मगर घर से बाहर मत निकलिए। निकले, तो खुद के लिए और घरवालों के लिए खतरा साबित हो सकता है। खतरे का तो कतरा भी खतरनाक ही होता है।
जिस तरह जनता कर्फ्यू के दिन घरों में कैद रहे थे। ठीक उसी तरह से कुछ दिन और घर के अंदर कैद रह लीजिए। जहन्नुम में जाने से बच जाएंगे। इस खाली समय में कुछ भी नहीं कर सकते, तो जनता कर्फ्यू की शाम की तरह थाली और ताली बजाते रहिए। हो सकता है कि कोरोना को रोना आ जाए और हमारे देश से भाग जाए।

बुढ़ापे की लाठी


कई दिनों से देख रहा हूँ। भाटी जी लाठी को जमकर तेल पिला रहा हैं। लाठी भी तेल पीकर अंबुजा सीमेंट से बनी दीवार की मानिंद इतनी मजबूत हो गई है कि तोड़ने से भी नहीं टूटे। जिसके हाथ में इतनी मजबूत लाठी हो। उसकी भैंस की ओर कोई आँख उठाकर देख ले। किसी की मजाल है। आँख उठाकर देखने की तो छोड़िए,कोई आँखें झुकाकर भी नहीं देख सकता। ऐसी मजबूत लाठी को देखकर तो पानी में गई हुई,भैंस वापस आ जाए।
लेकिन भाटी जी के पास तो बकरी का बच्चा भी नहीं है। फिर लाठी को इतनी ठोस करके क्या करेगायह प्रश्न मेरे मन में कौंधा। सोचा कुत्ता-बिल्ली को भगाने के लिए या चोर-उचक्को को डराने के लिए ठोस किया होगा। क्योंकि हाथ में मजबूत लाठी होती है तो मरियल में भी हिम्मत आ जाती है। वह भी अकड़ कर चलता है। लाठीधारी से पहलवान भी डरता है। कहते हैं कि लाठी के आगे तो भूत भी काँपता है। दुम दबाकर भाग जाता है। इस रहस्य का राज जानने के लिए,मैंने भाटी जी से पूछा। पहले तो हंसकर टाल गए। फिर से पूछा तो बताया। यह आम लाठी नहीं। खास लाठी है। इसकी ख़ासियत अभी नहीं। कुछ दिनों पश्चात दिखाई देने लगेंगी। बहरहाल तो परवरिश का तेल पिला रहा हूँ। संस्कार का तेल पिलाना शेष है। अब मैं इसकी सेवा कर रहा हूँ। बाद में यह मेरी करेगी। यही सेवा की मेवा है। 
मैं समझ गया था। यह बुढ़ापे की लाठी है। बुढ़ापे की लाठी जितनी मजबूत होती है। बुढ़ापा उतना ही आसानी से कटता है। इसीलिए तो व्यक्ति बुढ़ापे की लाठी से अथाह प्यार-प्रेम करता है। ताकि लाठी को किसी घाटी पर भी साथ लेकर चढ़ने को कहें तो आनाकानी नहीं करें। बल्कि तत्काल चढ़ने के लिए कहे। चलिए चलते हैं।
भाटी जी की उम्र ढल रही थी और लाठी जवानी के मजे ले रही थी। भाटी जी ने सोचा लाठी कहीं किसी के प्रेम प्रसंग में नहीं पड़ जाए। प्रेम-प्रसंग में पड़ गई तो बाहर नहीं निकल पाएगी। बाहर नहीं निकली तो बुढ़ापा बिना लाठी के सहारे ही काटना पड़ेगा।यही सोचकर पाणिग्रहण संस्कार कर दिया। शादी के कुछ माह बाद भाटी जी द्वारा पिलाया गया तेल सूखने लगा और नई नवेली द्वारा लगाया गया तेल रमने लगा। देखते ही देखते लाठी गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी। आँखें चुराने वाली आँखे बात-बात में आँख दिखाने लगी। कल तक जुबान नहीं उपड़ती थी। आज कतरनी से भी तेज चलने लगी है। मिमियाने की जगह गरयाने लगी। 
हद तो तब हो गई। जब उसने एक दिन भाटी जी पर लाठी उठा ली। यह देखकर मैं भी आश्चर्यचकित रह गया। सोचने लगा कैसा घोर कलि‍युग आ गया है। जिस पर बचपन से लेकर जवानी तक। किसी तरह की कोई आँच नहीं आने दी। आज वही आग बबूला हो रही है। कल तक जिसके मुखमंडल से सभ्य व संस्कारी बोल प्रस्फुटित होते थे। अब उसी मुखमंडल से बुरे-भले बोल मुखर होने लगे हैं। ऐसी बुढ़ापे की लाठी से तो लाख गुना अच्छा है। छोटे-मोटे डंडों के सहारे ही बुढ़ापा काट लिया जाए।

21 Mar 2020

नाक का सवाल और मूँछ का बाल


उसकी भी वहीं नाक है,जो कि एक आम भारतीय की होती है। मूँछ भी कोई खास नहीं पर वह मूँछों पर हाथ ऐसे फेरता है,जैसे राउडी राठौर फिल्म में अक्षय कुमार फेरता है। सच पूछिए तो उँगली और अँगूठे के बीच में चार बाल भी नहीं आते होंगे। लेकिन वह छोटी सी बात को भी मूँछ का बाल तथा नाक का सवाल बना लेता है। एक बार बना लिया तो बना ही लिया। फिर पीछे नहीं हटता। पक्का हठधर्मी है। नाक के सवाल पर तो घरवालों की ही नहीं अगल-बगल वालों की भी नाक में दम कर देता हैं। और जब तक नाक के सवाल का जवाब नहीं मिल जाता। तब तक नासिका पर मक्खी भी नहीं बैठने देता है। इसी तरह मूँछ के बाल पर जब तक बाल में से खाल नहीं निकाल लेता। तब तक बाल को खाल से अलग नहीं होने देता हैं। 
अगर किसी ने हँसी-मजाक में भी कह दिया फलाने सिंह ने ढिमका काम क्या कर दियाउसका नाम हो गया। इतना सुनते ही फलाने सिंह का काम तमाम करने में और खुद का नाम करने में जुट जाता है। चाहे परिणाम शून्य ही निकले पर जोर सैकड़ा का लगा देता है। खर्चा-पानी की भी परवाह नहीं करता। नाक का सवाल और मूँछ के बाल पर तो पानी की तरह पैसा बहा देता है। वैसे एक रुपया नाली में गिर जाए तो उसे भी निकालने लग जाता है। एक नंबर का मक्खीचूस है।
पड़ोसी के लाल से अपना लाल क्रिकेट मैच हार गया तो समझता है कि नाक कट गई। हर जगह अपनी नाक ऊँची रहे। इसलिए अपने बेटे पर भी बाजी लगा देता है। उसकी हार को जीत में बदलने के लिए। जीत गया तो इस तरह ढिंढोरा पीटता है,जैसे कि पुत्र वर्ल्ड कप जीत गया हो। चुनावी मौसम में कोई यूं ही कह दे कि तुम्हारे प्रत्याशी चुन्नीलाल के तो चुनाव में चूना लगेगा। फिर भले ही चुनाव वार्ड पंच का ही क्यों ना हो?अपने उम्मीदवार को जिताने का मिशन ही मूँछ का बाल होता  है।
उसकी नाक और मूँछ का दायरा खुद तक ही सीमित नहीं है। घर-परिवार,गली-मोहल्ला,गाँव- देहात,कस्बा,शहर,राजधानी से लेकर सोशल मीडिया तक विस्तृत है। जब मोहल्ले की खुशी किसी खुशीराम के साथ भाग गई थी। तब नाक अपनी न होकर मोहल्ले की हो गई थी। उसकी खोजखबर में चिरपरिचित से लेकर अपरिचित तक से पूछताछ कर डाली और  तीन दिन में ही ढूँढ़ निकाली थी। इसी तरह फेसबुक मित्र के चित्र पर मित्र चतरसिंह की लड़की चित्रकला फिदा हो गई तो समझा कि मित्र की नाक ही मेरी नाक है। इसलिए जुदाई का कमेंट लिखकर दूर रहने की चेतावनी दे डाला। नहीं माना तो पिटाई की चटनी चटा दी। पिटाई की चटनी ऐसी होती है कि एक बार जिसने चाट ली। फिर वह भूलकर भी इश्क चाट भंडार की ओर नहीं देखता। 
ऐसी प्रवृत्ति का व्यक्ति अकेला यही ही नहीं है। आपके भी आसपास में कोई ना कोई जरुर होगा। अगर नहीं है तो आप स्वयं होंगे। चौंकिए मत। अपनी मूँछों पर हाथ फेरकर देखिए और उस बाल को पकड़िए जो मूँछ के बालों का बाप है। मूँछ नहीं है तो कतई शर्मिंदा मत होइए। ऐसा नहीं है कि बिना पूछ की घोड़ी अच्छी नहीं लगती है तो बिना मूँछ का मर्द भी अच्छा नहीं लगता है। आज के दौर में तो बिना मूँछ वाला ही अच्छा लगता है। यकीन नहीं हो तो अपनी घरवाली या प्रेमिका से पूछ लीजिए। खैर छोड़िए,मूँछ नहीं है तो क्या हुआनाक तो है। नाक को तो कोई भी मूँछों की तरह कतरनी से नहीं काटता है। इसलिए नाक को निहार लीजिए। उसका अक्‍स दिख ही जाएगा।

20 Mar 2020

कोरोना की करनी और चाइनीज करतूत


कहते हैं कि चाइना का माल चले तो चांद तक और नहीं चले तो शाम तक भी नहीं। लेकिन चाइना का वायरस कोरोना तो कुछ ज्यादा ही चल पड़ा है। हर तरफ इसके ही किस्से सुनने को मिल रहे हैं। हर कोई इसके बचाव के उपाय वाली पोस्ट की कॉपी पेस्ट कर रहा है। यह सोशल मीडिया पर जितना फॉरवर्ड हो रहा है उतना तो देश में नहीं फैला है। अखबार का ऐसा कोई पन्ना नहीं जिसमें कोरोना की खबर नहीं। मगर खबर का असर नहीं पड़ रहा है। शीर्षक पढ़कर ही आगे बढ़ रहे हैं और सनसनीखेज खबरें ढूंढ रहे हैं। नहीं मिलने पर अखबार छोड़कर टीवी में देख रहे हैं। पर उसमें भी कोरोना की ही खबरें चल रही हैं। डिबेट हो रही है। कोरोनो से लड़ने के बजाय खुद लड़ रहे हैं।
रोज सरकार इश्तहार के माध्यम से सतर्क रहने की सलाह दे रही है। हाथ न मिलाए। नमस्ते से काम चलाइए। मास्क लगाइए। भीड़ का हिस्सा न बने। दिन में कई बार साबुन से हाथ धोए। पर कई लोगों का कहना है कि हम हाथ न मिलाएं तो हमारे घर का चूल्हा न जले। मास्क क्या खाक लगाएं। बाजार में 20 पैसे का मास्क 20 रुपए में मिल रहा है। रही बात भीड़ की तो ब्याह शादी में भीड़ तो होती ही है। साले की शादी में जीजा नहीं जाए तो साला घोड़ी पर कैसे बैठे। उसे घोड़ी पर बिठाने के लिए,भीड़ का हिस्सा बनना ही पड़ता हैं। हाथ जोड़कर नमस्ते करते हैं तो कोई समझता ही नहीं है कि अभिवादन कर रहा है। जहां पर पीने के लिए पानी नहीं,वो लोग कह रहे हैं कि हाथ धोने के लिए पानी कहां से लाएं।
टेलीकॉम कंपनियों की कोरोना कॉलर ट्यून लोगों में जागरूकता लाने के लिए खांसकर बता रही है। लेकिन सोशल मीडिया पर लोग मजाक बना रहे हैं कि कोरोना वायरस से लोग मरे या ना मरे,पर खांसने वाला कॉलर ट्यून जरूर लोगों को मार डालेगा।
सोशल मीडिया पर कोरोना वायरस को लेकर एक से बढ़कर एक चुटकुले वायरल हो रहे हैं। कल जैसे ही मैंने अपनी फेसबुक खोली तो पहला कोरोना चुटकुला कुछ इस तरह से था,गुस्सा तो तब आता है। जब कोरोना की पूरी कॉलर ट्यून सुनने के बाद भी अगला फोन नहीं उठाता है। यहां से आगे बढ़ा दो एक छोड़कर दूसरी पोस्ट पर इससे भी मजेदार थी,स्कूल-कॉलेज व कोचिंग सेंटरो में तो कोरोना आ जाएगा और ऑफिस वाले क्या डेटोल से धुले हुए हैं,जिनमें नहीं आएगा। इतने में ही व्हाट्सएप पर एक मित्र ने यह वाला भेज दिया,कोरोना वायरस इसलिए नाराज है कि चेचक माता की उपाधि से अलंकृत हैं,तो मुझे फूफा की उपाधि से अलंकृत क्यों नहींव्हाट्सएप से बाहर निकला ही था कि इंस्टाग्राम पर एक निराला ही मिला। देशवासी तब तक कोरोना को सीरियसली नहीं लेंगेजब तक जागरूकता के लिए तारक मेहता का एक पूरा एपिसोड नहीं आ आता। सोशल मीडिया पर कोरोना वायरस का मजाक भी खूब उड़ाया जा रहा है। फिर भी इतना बेशर्म है कि देश से बाहर नहीं निकल रहा है। चुटकुलों से भी बाज नहीं आ रहा है।मोहनलाल मौर्य

मोबाइल पर खांसने का संक्रमण


इन दिनों मैं जब भी किसी के पास फोन लगाता हूं, मेरे मोबाइल में बुजुर्ग व्यक्ति की तरह पहले तो कोई खांसता है, उसके बाद में एक युवती कोरोना वायरस के बचाव के उपाय बताती है। आजकल तो नॉर्मल खांसी भी कोरोना वाली लगती है। इसलिए मोबाइल के खांसने पर एक बार तो डर सा लगता है। कहीं मुझे भी कोरोना अपनी गिरफ्त में न ले ले। मोबाइल के खांसते ही युवती के बताए निर्देशानुसार उसे एक मीटर दूर कर देता हूं और जेब से रूमाल निकालकर अपने मुंह पर लगा लेता हूं। जब तक अगला फोन उठा नहीं लेता, तब तक मोबाइल को कान नहीं लगाता हूं। रूमाल तो फोन कटने के बाद ही मुंह से हटाता हूं। वैसे तो फोन के भीतर वाली युवती की बताई एक-एक बात गांठ बांधने वाली है। जिसने नहीं बांधा, उसकी जिम्मेदारी खुद की है।
जब सामने वाला फोन उठाते ही खांसने लगता है, तब और ज्यादा डर लगता है। कहीं कोरोना मोबाइल में घुसकर न आ जाए। अब तो किसी के पास फोन भी लगाता हूं, तो डरते-डरते लगाता हूं। फोन उठाते हेलो की जगह भैया खांसी आए, तब भी खांसना मत बोले बगैर नहीं रहता। यह सुनकर कई तो इतने नाराज हो गए हैं कि उनकी नाराजगी दूरभाष पर दूर नहीं होगी। उनके पास ही जाना पड़ेगा, मगर इन दिनों पास जाना खतरे से कम नहीं है।
कल ही एक जिगरी दोस्त के पास गया, तो वह मुंह फुलाए बैठा था। कारण पूछा, तो बगैर मुंह पर रूमाल रखे जोर-जोर से खांसने लगा। उसके खांसते ही कारण जाने बगैर, जरूरी काम का हवाला देकर वहां से चला आया। उसने तुरंत मुझे फोन लगाया, लेकिन मैं जान-बूझकर नहीं उठाया, क्योंकि वह फोन पर भी खांसे बगैर नहीं रहता। आजकल मुझे जितना डर खांसी से लगता है, उतना फांसी से भी नहीं लगता।
एक वह दौर भी था। खांसकर घर में प्रवेश करने पर घर की बहुएं बिना बताए समझ जाती थीं कि कोई घूंघट वाला ही आया है। आजकल खांसने से लोग भाग निकलते हैं। मोहनलाल मौर्य

18 Mar 2020

हाथों हा‍थ कमल का कमाल


देश के मध्य में प्रदेश के एक युवा नेता के बरसों से हाथ में हाथ था और अब उनके हाथ में कमल है। उनको हाथ वाला कमल साथ लेकर नहीं चला,तो वो अपनी दादी और बुआये के वाले कमल की गोद में जाकर बैठ गए। गोद में बैठते ही उनको राज्यसभा का टिकट दे दिया।
क्या यही कारण थाहोली के मौके पर भगवा रंग में रंग जाने का या फिर नेपथ्य में और ही कुछ है। खैर,यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। उन पर भगवा रंग परवान चढ़ता है या नहीं। लेकिन जिनका रंग बदरंग करके गए हैं। वो बंद कमरे में बैठकर मंत्रणा कर रहे होंगे। महाराज के खेमे वाले भी उनके साथ चले गए तो क्या होगा। कैसे भी करके खेमे वालों को लाना होगा। अन्यथा खेमे वाले सरकार गिरा देंगे। सरकार गिर गई तो जल्दी सी उठेगी नहीं। उठ भी गई तो यह जरूरी नहीं है कि हमारी ही हो जाएगी। गिराने वालों की गोद में जाकर बैठ जाए। बस इसे तो बहुमत का सहारा चाहिए। फिर चाहे गठबंधन के द्वारा सहारा दिया जाए या फिर अकेले दिया जाए।
वैसे तो उन्होंने सरकार को गिरने से बचाने के लिए  अपने विधायकों को होली भी नहीं खेलने दिया। जिस स्थिति में थे उसी स्थिति में विशेष विमान में बिठाकर रिसोर्ट में पहुंचा दिया है। रिसोर्ट में ठहरे विधायक कड़ी निगरानी में है। निगरानी में इसलिए है कि एक भी विधायक इधर-उधर नहीं हो जाए। इधर से उधर हो गया तो उधर से फिर इधर लाना मुश्किल हो जाता है। मुश्किल होने के बाद फ्लोर टेस्ट का मैच खेलना भारी हो जाता है। जीते हुए भी हारे के बराबर हो जाते हैं। 
रिसोर्ट से कई विधायक इधर से उधर जाने में रहते हैं। मौका मिलते ही चले भी जाते हैं। सियासत में मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता है। सब के सब मौके पर चौका मारने में रहते हैं। लेकिन चौका उसी का लगता है,जो राजनीति का मंझा हुआ खिलाड़ी होता है। दल बदलने में देरी नहीं करता है। ऑफर मिलते ही हाथ मिला लेता है। गिरगिट की तरह रंग बदलने में अग्रणी रहता है।
अब विधायक गायब होने लगे हैं। गायब वाले नायाब होते हैं। ऐन मौके पर आते हैं और आते ही  मलाईदार विभाग हथिया लेते हैं। मुझे तो लगता है कि यह मलाई खाने के लिए ही गायब होते होंगे हैं। यह गायब होते हैं तो इनके परिजन बिल्कुल भी चिंतित नहीं होते हैं और नहीं पुलिस को इत्तला करते हैं। माननीय जी गायब हो गए या किसी ने अपहरण कर लिया है। क्योंकि उन्हें भी पता है कि गायब हुए हैं तो,प्रमोशन होकर ही आएंगे। प्रमोशन नहीं भी होकर आए तो सूटकेस भरकर लेकर आएंगे।
ऐसे अवसर पर हॉर्स ट्रेंडिंग भी होती है। बिकने वाली बिक जाते हैं और नहीं बिकने वाले रह जाते हैं। कहते हैं कि बिकता हर कोई है,बस उसकी कीमत लगाने वाला चाहिए। सबकी अपनी अलग-अलग कीमत होती हैं। कई तो हिनाहिना कर अपनी कीमत बता देते हैं और कईयों की कीमत खरीदार को ही आकलन करनी होती है। सियासत के खरीददार सबसे पहले उन घोड़ों को खरीदते हैं,जो पंचवर्षीय रेस में बीच में रह नहीं जाए। मोहनलाल मौर्य

9 Mar 2020

अब न होली की लपटें न ढफ की थाप पर नागिन डांस


पहले जैसी होली का उत्सव अब कहां बचा है। होली डांडा रोपण के दिन से ही फाग का राग शुरू हो जाता था और होली दहन तक चलता था। पूरी रात नाचते गाते थे। डफ की थाप पर नागिन डांस करते थे। महिलाएं होली के गीत गाया करती थी। अब न तो होली का डांडा गड़ता है न कोई फाग का राग गाता है और न कोई नृत्य करता है। बस होली के दिन डीजे बजा लेते हैं और नाच लेते हैं। डीजे पर भी सिर्फ छोरे-छापरे थिरक लेते हैं।  
पहले मोहल्ले के सारे टाबर दिन ढलते ही एक जगह इकट्ठे हो जाते थे और स्वाँग निकालने का कार्यक्रम बनाते थे। रोज घर-घर जाकर स्वाँग दिखाते थे। बड़े-बुजुर्ग एक-दो रुपया देकर आशीर्वाद देते थे। उन रुपयों की मिठाइयां खाते थे। आज के टाबर स्वाँग जानते ही नहीं। यह तो रंग-गुलाल लगाने का अभिप्राय भी नहीं जानते हैं। बस एक-दूसरे की देखा देखी को देखकर लगा देते हैं। अपने स्मार्टफोन से सेल्फी ले लेते हैं और सोशल मीडिया पर टांक देते हैं।
लोग रात्रि को लुकाछिपी का खेल खेलते थे और लोगों की बाड़ उठा लाते थे होलिका टिब्बा लाकर पटक देते थे। लेकिन बाड़ का मालिक चू नहीं करता था। अब यह सब बीते दिनों की बात  हो गई। तभी आज होली की लपटें ज्यादा ऊपर नहीं उठती हैं। जबकि पहले एक गांव कि होली की लपटें दूसरे गांव में दिख जाती थी। क्योंकि भर भोलिए और लकड़ियों का ढेर लग जाता था। अब ढेर तो लगता नहीं हैं और लपटें उठती नहीं है। पहले पूरे गांव की एक ही जगह होली होती थी और अब ढाणी-ढाणी में होली मंगलने लगी है।
होली दहन के बाद बच्चे बड़े बुजुर्ग सब घर-घर जाकर एक-दूसरे के गले मिलते थे। शिकवे-गिले दूर भगाते थे। अपनों से बड़ों के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेते थे। अब तो पड़ोसी के नहीं जाते हैं। बस व्हाट्सएप पर ही आशीर्वाद आदान-प्रदान कर लेते हैं। धुलेंडी के दिन रंग ही नहीं लगाते थे। बल्कि कीचड़ तक उड़ेल देते थे। देवर-भाभी और जीजा-साली तो एक-दूसरे के मुंह में रंग ठुस देते थे और चेहरे पर कालिख पोत देते थे। आज कालिख पोत दे तो कलह हो जाए। मोहनलाल मौर्य                                                   


1 Mar 2020

एक लेखक की दिनचर्या


आपने अपने पसंदीदा अभिनेता या नेता की दिनचर्या के बारे में तो खूब पढ़ा होगा। लेकिन,क्या आपने कभी किसी लेखक की दिनचर्या के संदर्भ में पढ़ा हैअगर नहीं पढ़ा है तो पढ़िए अधुनातन युग के एक लेखक की दिलचस्प दिनचर्या। जिसका नाम छोटे लाल 'छोटू' है। छोटू उसका तख़ल्लुस है। साहित्य में तख़ल्लुस बहुत मायने रखता है। तख़ल्लुस से वह तकलीफ दूर हो जाती है,जो कि साहित्यिक पथ पर चलने के दौरान आती है।
छोटू के मोबाइल में जैसे ही सुबह पाँच बजे की अलार्म बजती है। उसका हाथ उसी तरह से सिरहाने रखें मोबाइल पर पहुँच जाता है। जिस तरह से खुजली चलने पर पहुँच जाता है। क्या है कि वह अपने सुख-दुख के संगी साथी मोबाइल को हमेशा सिरहाने रखकर ही सोता है। पता नहीं कब किसकी घंटी बज जाए। रिसीव करने से पहले ही घंटी मिसकॉल की नहीं हो जाए। यह उसे कतई पसंद नहीं है। इसी तरह से अलार्म के समय पड़ोसी का मुर्गा बांग नहीं मार दे। इंटरनेट के युग में मुर्गे की बांग सुनकर जगना वह अपनी तौहीन समझता है।इसलिए नींद में ही अलार्म बंद करके मोबाइल को रजाई में ले लेता है। फिर रजाई के अंदर ही आँखें मसलते हुए सबसे पहले उन अखबारों का ईपेपर देखता है। जिन्हें अपनी रचना भेज रखी है। जब किसी भी अखबार में अपनी रचना के दर्शन नहीं होते हैं तो अन्य लेखकों की रचना के दर्शन करके उन्हें सेव कर लेता है। 
खुद बाद में पढ़ता हैं। पहले लेखक को हार्दिक बधाई के साथ व्हाट्सएप करता है। क्योंकि छोटू लेखकों के कई व्हाट्सएप ग्रुपों से जुड़ा है। वहीं से नंबर सर्च करके प्रेषित कर देता है। प्रेषित करने से भी प्रसिद्धि प्राप्त होती है। ऐसा उसे लगता है। जो अपरिचित है,उसे बगैर पूछे ही अपना लेखकीय परिचय भेजकर परिचित कर लेता है। परिचित होने के बाद आए दिन परिचर्चा करता रहता है। परिचर्चा से चर्चित होता है। ऐसा उसका मानना है। उस लेखक की फेसबुक वॉल पर अपना नाम सूचनार्थ के रूप में देखकर फूले नहीं समाता है। फुले नहीं समाने का कोई रहस्य पूछता है तो उसे भानगढ़ के भूतहा किला की कहानी सुनाने लग जाता है। जिसे सुनने पर रूह कांपने लगती है।
बिस्तर बाद में छोड़ता है पहले सेव की हुई रचनाओं का आनंद लेता है। आनंद के बाद नित्यकर्म के लिए जाता है। नित्यकर्म के दौरान आज किस विषय पर लिखना है के संदर्भ में सोचता है। वहाँ पर विषय मिल गया तो खिलखिलाता हुआ बाहर निकलता है। नहीं मिला तो मुरझाया हुआ नहीं। गेट को जोर से बंद करके निकलता है। इसके बाद टूथब्रश एवं स्नान के समय खोजता है। इस समय मिल गया तो फिर चाय सुड़कते-सुड़कते ही प्रस्तावना तो लिख डालता है। उसके बाद पूरी दोपहरी विस्तार में लगा रहता है। संध्याकालीन तक भी लेख पूरा नहीं होता है तो कार्य मध्यरात्रि तक प्रगति पर रहता है। जब तक कार्य प्रगति पर रहता है। घर-बाहर के किसी भी कार्य में हाथ नहीं बट आता है। चाहे घरवालों से खरी खोटी ही क्यूँ नहीं सुननी पड़े। लेकिन पहले अपने लेखन कार्य को ही प्राथमिकता देता है।
वैसे तो वह जब चाहे तभी पूर्ण कर सकता है। लेकिन क्या है कि बीच-बीच में फेसबुक तथा व्हाट्सएप की शरण में भी जाना होता है। इसलिए पूरा होने में मध्यरात्रि तक लग जाती है। क्योंकि फेसबुक और व्हाट्सएप इतने रमणीय स्थल हैं कि एक बार वहाँ पर जाने के बाद  जल्दी सी वापस आने का मन ही नहीं करता है। जिस दिन लिखने लायक विषय नहीं मिलता है। उस दिन दिनभर फेसबुक से व्हाट्सएप पर व्हाट्सएप से इंस्टाग्राम पर इंस्टाग्राम से ट्विटर पर यह देखता रहता है कि देश-दुनिया में क्या घटित हो रहा हैकौन सुर्खियां बटोर रहा हैसाथी लेखक का हाथी पर लिखा व्यंग्य देश के प्रमुख अखबार में कैसे छप गयाउस दिन इसी खोज खबर के चक्कर में घर पर आने वाला अखबार भी नहीं पढ़ता है। बेचारा अखबार दिनभर दालान में ही पड़ा-पड़ा फड़फड़ाता रहता था। कई बार तो उसके अपने पन्ने भी जुदा होकर गुमशुदा हो जाते हैं।
जिस दिन खुद की रचना प्रकाशित हो जाती है। उस दिन नित्यकर्म बाद में करता है। पहले प्रकाशित के प्रकाश को अपनी फेसबुक वॉल पर पहुँचाता है। उसके बाद में व्हाट्सएप वाया इंस्टाग्राम होते हुए ट्विटर पर ले जाता है। उस दिन लिखता-विकता नहीं है। बस दिनभर लाइक और कमेंट पर आँखें गड़ाए रखता है। कमेंट आते ही तुरंत रिप्लाई देता है। उस दिन उसके आभार का द्वार खुला ही रहता है। पोस्ट पर आने वाले कमेंटार्थियों को थैंक यू,धन्यवाद व शुक्रिया के दर्शन करवाए बगैर जाने नहीं देता है। जबकि बाकी दिन आभार के द्वार खोलता ही नहीं है। उस रोज अपनी प्रकाशित रचना के सिवाय किसी अन्य लेखक की रचना नहीं पढ़ता है और नहीं ही किसी को लाइक व कमेंट की घास डालता हैं। बस खुद की प्रकाशित रचना का ही राग अलपाता रहता है। बस यही उसकी दिलचस्प दिनचर्या है।