30 Jun 2019

किस्मत का खेल और बेचैनी


बचपन में एक ज्योतिषी महाराज ने मुझे बताया था कि तुम्हारी हस्तरेखाओं में भाग्य की रेखा तो बड़ी भाग्यवान हैं। कहीं से भी कटी-फटी हुई नहीं है। न टेढ़ी-मेढ़ी है।बिल्कुल सीधी सट्ट है। हथेली पर आड़ी तिरछी खींची हुई लकीरों में कौन सी लकीर भाग्य वाली है। मुझे तो आज तक पता नहीं लगा है। लेकिन मैंने जब से यह सुना है कि सब किस्मत का खेल है। तभी से किस्मत का खेल खेलने के लिए बेचैन हूँ। बस मौका नहीं मिल रहा है। कैसे भी करके एक बार मौका मिल जाए तो मेरा भी नसीब चमक जाए। क्योंकि मेरी हथेली पर भाग्य की लकीर है।
लोग कहते हैं कि जब किस्मत का ताला खुलता है न तो ऊपरवाला छप्पर फाड़कर देता है। मगर मैंने तो किस्मत पर ताला भी नहीं लगा रखा है। लगाऊंगा कहां से मेरी किस्‍मत के दरवाजे की तो छोड़िए,मेरे तो घर के दरवाजे में ढंग से सांकल नहीं लगी हुई है,जो कि मैं अपनी किस्मत पर ताला लगाऊंगा। वैसे भी ताला तो वे लोग लगाते हैं जिनके पास खजाना होता है। जिसका उन्हें चोरी होने का भय रहता है। मेरा तो वैसे ही कंगाली में आटा गिला हो रहा है। सच पूछिए तो मैंने अपना छप्पर भी फाड़ रखा है। ताकि ऊपरवाले को देने में किसी तरह का कष्ट नहीं हो। फिर भी ऊपरवाला देने में देरी कर रहा है। पता नहीं ऊपरवाले की फेहरिस्त में मेरा नंबर कितने नंबर पर हैंजो कि आ ही नहीं रहा है। या जानबूझकर नंबर नहीं लिया जा रहा हैं। मुझे तो यह भी पता नहीं सूची में मेरा नंबर है भी या नहीं। कहीं मैं वैसे ही तो प्रतीक्षा नहीं कर रहा हूँ। मेरे पास ऊपरवाले के संपर्क सूत्र भी तो नहीं हैं। अन्यथा पूछताछ कर ही लेता। फेसबुक पर भी तो नहीं है। होते तो फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजकर,इनबॉक्स में चैट करके मामला सेट कर लेता।
मेरा पड़ोसी कहता हैं कि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं। मगर मेरे तो घर में बिजली के बावजूद भी अंधेरा छाया हुआ है। मित्र कहता है कि सब्र रख,सब्र का फल मीठा होता है। आज नहीं तो कल तेरी भी किस्मत चमकेगी। मित्र को कैसे बताऊं कि मुझे सब्र के मीठे फल के बजाय बेसब्री फल पसंद है। फिर चाहे वह कड़वा ही क्यों ना होमैं खा लूंगा। खाने के बाद डकार तक नहीं लूंगा।

आप सोच रहे होंगे। भला किस्मत का भी कोई खेल होता है। भाई साहब! चाहे खेल कोई भी हो। उसमें असली खेल ही किस्मत का होता है। जो अपने प्रिय खेल का खिलाड़ी होने के साथ-साथ किस्मत के खेल का भी खिलाड़ी है। उसकी तो हर हाल में जीत ही होती है। भले ही खेल का खिलाड़ी अनाड़ी हो पर किस्मत के खेल का असली खिलाड़ी है तो उसे कोई भी माई का लाल पराजित नहीं कर सकता। विश्वास नहीं है तो कभी किसी किस्मत के खिलाड़ी के साथ अपना भाग्य आजमाकर देख लेना। चारों खाने चित नहीं आओ तो कहना।
ऐसा नहीं है कि मैं हाथ पर हाथ रखकर बैठा हूँ। रोज भाग्य से लड़ रहा हूँ। उससे हाथ जोड़कर विनती करता हूँ। मुझे भी किस्मत का खेल खेलना है। मैं भी किस्मत के खेल का खिलाड़ी बनना चाहता हूँ। लेकिन भाग्य है कि रोज मुझे लताड़कर खदेड़ने में रहता है। जैसे तैसे हिम्मत जुटाकर पूछता हूँ तो बोलता है कि अभी तेरा नसीब साथ नहीं दे रहा है। जिस दिन साथ देगा। उस दिन से तुझे भी खेलने का मौका दूंगा। ऐसा शायद ही कोई दिन गया होगा कि मैं अपने नसीब से यह नहीं पूछता हूँ कि मेरा साथ क्यों नहीं देता है? रोज उसका एक ही जवाब होता है कि मैं मेहनत के बगैर किसी के भी साथ नहीं देता हूँ। यह बात तेरी खोपड़ी में बैठती क्यों नहीं। जो कि रोज-रोज पूछता है। आदत से लाचार है क्यामेहनत से पूछता हूँ तो वह नसीब का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ती है। बोलती है कि तेरा नसीब ही खराब है। मैं तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश करती हूँ। तेरे लिए तो जी तोड़ परिश्रम करती हूँ। उसके बावजूद भी तेरा नसीब साथ नहीं देता तो मैं क्या करूं?
समझ में यह नहीं आता है कि नसीब और मेहनत के बीच में ऐसा कौन सा छत्तीस का आंकड़ा फंसा हुआ है। जो कि मेरे भाग्य का ठीकरा एक-दूसरे के सिर पर फोड़ते हैं। मुझे साफ-साफ क्यों नहीं कह देते। यह खामियां हैं। इन्हें पूरी कीजिए। ग्रह नक्षत्रों के कारण बाधा आ रही है। किसी ज्योतिषी से सलाह मशवरा करके निवारण कीजिए। लगता है कि यह तो बताने से रहें। मुझे ही कुछ करना होगा। क्योंकि मैं भी हार मानने वालों में नहीं हूँ। किस्मत का खेल तो खेल कर ही रहूंगा। फिर चाहे अंजाम जो भी हो। देखा जाएगा।

16 Jun 2019

रसातल में रिश्वत भी नहीं चलती


जिसके पनघट पर जमघट लगा रहता था। पनिहारी 'मन की बात’ करती थी। कच्चे चिट्ठे खुलते थे। ब्रेकिंग न्यूज़ बनती थी। लाइव टेलीकास्ट होता था। वह सरकारी हैंडपंप मैं ही हूँ। लेकिन जब से पानी रसातल में गया है। कोई भी मेरी ओर झाकता भी नहीं। उन दिनों मैं तो दिन-रात मोहल्ले वासियों की सेवा में समर्पित रहता था। कभी किसी को पानी के लिए मना नहीं किया। एक बाल्टी की जगह दो बाल्टी भर कर देता था। मैं यह नहीं कह रहा कि मोहल्लेवासी मेरा ख्याल नहीं रखते थे। वे भी पूरा ख्याल रखते थे। जब भी सर्विस का मन होता था तो सर्विस करवा कर मेरी मनोकामना पूर्ण कर देते थे। 

लेकिन इंसान कितना खुदगर्ज हैइसका आभास मुझे तब हुआ,जब इनकी भरपूर जलपूर्ति करता था तो यह लोग प्रशंसा करते नहीं थकते थे और जब से जलपूर्ति बंद हुई है। कोई हालचाल भी पूछने नहीं आता। धरा के अंदर जल ही नहीं है तो मैं कहा से खींचकर लाऊं। जल रसातल में चल गया है। वहाँ तक पहुँच पाना मेरे बस की बात नहीं। रसातल में रिश्वत भी नहीं चलती,जो कि घूस देकर पानी ले आऊं और न ही ऐसा कोई जुगाड़ है,जिससे पानी ले आऊं। जुगाड़़ के मामले में भी भारतीय मानव सबसे आगे हैं। बस इसने तो जल बचाने का ही जुगाड़ नहीं किया। दो की जगह चार बाल्टी उड़ेलकर नहाते धोते थे। पशुओं को रगड़कर नहलाते थे। मोटरसाइकिल धोने में दुनिया भर का पानी व्यर्थ कर देते थे। अब बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं। सरकार को कोस रहे हैं। जल सरकार की मुट्ठी में थोड़ी है,जो भींच कर बैठी है। देने से मना कर रही है। सरकार तो जल है,तो कल है...तथा जल ही जीवनकी अपील कर सकती है। सूखाग्रस्त इलाकों का जायजा लेने के लिए ज्यादा से ज्यादा जलमंत्री को भेज सकती है। इसमें जल मंत्री जी भी क्या कर सकते हैंसेल्फी लेकर अफसोस जता सकते हैं।
एक दिन एक स्थानीय पत्रकार की मेरे पर नजर क्या पड़ी, उससे  मेरी हालत देखी नहीं गई। अखबार में छाप दिया। मेरी खबर अखबार में क्या छपी,स्थानीय नेताओं में होड़ मच गई। मुझे दुरुस्त करवाकर श्रेय लेने की। इन्होंने खबर का ऐसा मुद्दा बनाया ग्राम पंचायत से पंचायत समिति तक हाहाकार मचा दिया। यह तो शुक्र है कि‍ बीडीओं साहब ने जलदाय विभाग से एक कर्मचारी भेज दिया था। अन्यथा यह तो मुझे लेकर सड़क पर चक्काजाम कर देते। अच्छा इनको भी मेरा ख्याल अखबार में छपने के बाद ही आया।
जलदाय विभाग से जो कर्मचारी आया था। वह मुझे देखकर बुदबुदाया। जो पहले से दुरूस्त है। उसे क्या दुरूस्त करूपर इत्ती दूर से आया हूँ तो कुछ ना कुछ ट्रीटमेंट तो करके ही जाऊंगा। उसने किया क्यादो-चार नये बोल्ट और ग्रीस करके चला गया। उसे भी अच्छी तरह से मालूम है और मुझे भी तथा लोगों को भी। जल जलस्तर तक रहा ही नहीं है। ट्रीटमेंट करना तो एक औपचारिकता है। अब तो मेरे पनघट पर जमघट तभी लगेगा जब जल स्तर ऊपर उठेगा।

14 Jun 2019

गरमी नहीं बरत रही नरमी


प्रचंड बहुमत के बाद गरमी भी प्रचंड पथ पर चल पड़ी है। चाहे इसे ईर्ष्या कहें या प्रतिस्पर्धा। अब तो जब तक बारिश से मुठभेड़ नहीं हो जाती उससे पहले रोकने से भी रुकने वाली नहीं है। चाहे आड़े अंधकार आए या तूफान आए। तब तक आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। जब तक सूर्यदेव का समर्थन प्राप्त है। इन दिनों सूर्य कुपित है। आग बरसा रहा है। इससे दुश्मनी मोल लेने पर वही हालत होगी। जिनकी इस समय प्रचंड बहुमत न मिलकर चंद मिलने पर हो रही है।

इनका मुखिया गम में डूबा हुआ है। चिंतन कर रहा है।अपना इस्तीफा देने को तैयार बैठा है। लेकिन लेने को कोई तैयार नहीं। अजीज यार भी हार की समीक्षा करने में लगे हुए हैं। आखिर चूक कहां पर हुई है। बादल बने भी थे। गरजे भी थे। बिजली भी चमकी थी। हवा भी चली थी। हल्की-फुल्की बौछार भी आई थी। इसके बावजूद मेघ हम पर मेहरबान न होकर उन पर इतने मेहरबान हो गएवो जलमग्न हो गए और हम सूखाग्रस्त ही रह गए। 
अब इन्हें कौन समझाएक्या इन्हें खुद को पता नहीं है। मेघ हवा का रुख देखकर बरसते हैं। जिधर की हवा चल रही होती है। उधर हो लेते हैं। हवा उसी दिशा में चलती है। जिस दिशा में उसका वेग होता है। बदलती तभी है,जब वेग मंद या तीव्र होता है। उस समय घनघोर काले बादलों को न देखकर हवा का रुख देख लिए होते तो इतनी बुरी स्थिति नहीं होती। खैर,जो हुआ,सो हुआ। मगर ऐसे ही चलता रहा तो आगे अकाल पड़ना निश्चित है। तब हम कहीं के भी नहीं रहेंगे। शायद यही सोचकर साठ पार्षदों ने अपने भविष्य का विकल्प निश्चित किया हो।
लेकिन प्रचंड पथ पर निकल पड़ी गरमी का क्या करेंसीलिंग फैन डिवाइडर पर भी ब्रेक नहीं लगा रही है। कूलर को कुचलती हुई इतनी तीव्र गति से चल रही है कि देखकर,एयर कंडीशनर की पतलून गीली होने को है।समय रहते हुए बारिश से मुठभेड़ नहीं हुई तो गरमी बिल्कुल भी नरमी नहीं बरतने वाली है। फिर तो प्रचंड बहुमत की तरह प्रचंड रिकॉर्ड कायम करके ही रुकेगी। 
कहीं ऐसा तो नहीं बारिश भी समुद्र किनारे बैठकर चिंतन में कर रही हो। अबके वर्ष बरसना है या नहीं बरसना है। बरसना है तो कहां पर बरसना है। इसको लेकर बादलों से मंथन कर रही हो। बादल कह रहे हो कि अभी तो गरमी अपने प्रचंड पथ पर हैं। इसको अबकी बार अपना लक्ष्य प्राप्त करने दे। हर बार हम इसके लक्ष्य में बाधा बन जाते हैं। क्यों ना अबकी बार बाधा न बनकर प्रोत्साहित करें और गरमी से कहीं की तू अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ती रह। हम तो सांयकाल भी छाया नहीं करेंगे। भरी दोपहरी वाली ही तेज धूप ही बरकरार रखेंगे। अगर संभवतःऐसा संभव हो गया तो गरमी के पंंख लग जाएंगे। फिर यह प्रचंड पथ पर चलेगी नहीं,उड़ेगी। एक बार इसने उड़ान भर ली तो यह समझ ही अपना लक्ष्य पूरा करके ही लैंड करेगी।

12 Jun 2019

चिलचिलाती धूप में जिंदगी की चकमक


मेरी चलती बाइक के बाएं शीशे पर एकाएक चिलचिलाती धूप की ऐसी चमक पड़ी कि शीशा चटक गया,जिसमें से पीछे सरपट दौड़ते वाहनों को निहारना मुश्किल हो गया। समीप चलते वाहन दूर और दूर चलते समीप दिखने लगे। ट्रक बस दिखने लगी और बस ट्रक दिखने लगा। स्पीड सुई रूठकर अस्सी से चालीस की हो गई,जिसके कारण चलती बाइक पर भी चिलचिलाती धूप आलपीन की तरह चुभने लगी।
हेलमेट का शीशा उठाकर देखने लगा तो आंखें चौंधियाने लगी। बगैर शीशे में देखे बिना बाइक चलाना मौत को बुलाना है। यह सड़क किनारे लगे एक बोर्ड पर लिखा था। सड़क किनारे लगे बोर्डों पर लिखे आदर्श वाक्य को पढ़कर चलने वाले इतनी दूर चले जाते हैं कि कभी वापस नहीं आते और पढ़कर पालन करने वाले यही घूमते-फिरते रहते हैं।
दाएं शीशे को पीछे बैठी प्रेयसी के चेहरे पर सेट कर रखा था ताकि गरमी का एहसास नहीं हो। गरमी हैं कि रत्ती भर भी नरमी नहीं बरत रही थी। वह भी मेरी तरह अपने प्रचंड पथ पर तीव्र गति से चल रही थी। और उसकी प्रेयसी लू तो मेघ की छांव में भी पूरी वेग से चल रही थी। जबकि मेरी प्रेयसी चिपक कर बैठने के बजाय मुँह पर दुपट्टा बांधकर मेरी पीठ में मुँह छुपाए बैठी थी।
बाइक रोककर सड़क किनारे किसी पेड़ की छांव में पांव रखने का मन इसलिए नहीं कर रहा था कि धूप धूम मचाने लग गई थी। और बाएं शीशे ने स्पीड कम कराकर बाइक पर रोमांस का जो मजा था,उस पर साइड नहीं मिलने पर हॉर्न बजाकर आगे निकलने वाले वाहनों ने पानी फेर दिया था। उस समय घर पहुंचकर कूलर की गूलर जैसी हवा खाने की स्पीड पर भी बाइक नहीं चल रही थी और प्रेयसी सीलिंग फैन की स्पीड पर चलाने के लिए बार-बार जोर दे रही थी क्योंकि चिलचिलाती धूप उसे भी अपनी गिरफ्त में ले चुकी थी। उसके माथे पर पसीने की बुंदे मोती की तरह चमकने लगी थी। 
शुक्र है कि शीशा चटकर लटका नहीं। लटक जाता तो नीचे गिरता और नीचे गिरता तो पिछले टायर के नीचे आता और टायर के नीचे आता तो टायर पंचर होता। टायर पंचर हो जाता तो प्रेयसी से ब्रेकअप होना  सुनिश्चित था क्योंकि भरी दुपहरी में वह पैदल  चलती नहीं और मेरे अकेले से पंचर बाइक दो कदम भी नहीं चलती। ऐसी स्थिति में इजहार नहीं तकरार होती। तकरार में ब्रेकअप स्वाभाविक है।

9 Jun 2019

पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है


मैं अपने पड़ोसी से उतना ही दुखी हूँ। जितना की आम आदमी बढ़ती महँगाई से है। गरीब गरीबी से है। बेरोजगार बेरोजगारी से है। उसकी रोज-रोज की उधारी से मुझे ब्लड प्रेशर की बीमारी हो गई है। वह इतना मीठा बोलता है,जैसे कि उसकी वाणी में मिश्री घुली हुई हो। उसके मीठे बोल सुनकर कहीं मुझे शुगर नहीं हो जाए। इस डर से वह जो भी चीज लेने आता हैं,मैं तत्काल दे देता हूँ। लेकिन वह तत्काल को आपातकाल में भी वापस नहीं करता है। कहता है कि मालामाल के क्या मांगे आपातकाल। उसके मुँह से मालामाल शब्द सुनकर मेरे मुँह से भी निकल जाता है कि तेरे मुँह में घी शक्कर। घी शक्कर का नाम सुनते ही उसके मुँह में पानी आ जाता है और वह उसी वक्त घी शक्कर मांग लेता है।
मौके पर चौका मारने में कभी नहीं चूकता है। मौके की तो वाइड गेंद को भी नहीं छोड़ता है। उस पर भी ऐसे घुमाकर मारता है कि गेंद सीधी मौके की बाउंड्री पर जाकर गिरती है। उस पर गुस्सा तो बहुत आता है। लेकिन वह मुझे गुस्सा थूकने वाला पान खिला देता है। जिसको खाने से मेरा सातवें आसमान पर चढ़ा गुस्सा भी उतर आता है और चेहरा चमक जाता है। चेहरे पर चमक देखकर वह नमक तक माँग लेता है। उसे माँगने में कतई शर्म नहीं आती है। शर्म को तो उसने खूँटी के टाँग रखा है। आएगी कहाँ से। बेझिझक आता है और जो चाहिए वह लिया जाता है। कोई मना कर दे तो मनुहार करके उसे खुश कर देता है। फिर वह खुशहाली में थाली भरकर देता है। खाली हाथ तो कभी नहीं लौटा है। बच्चों के गाल सहलाकर दाल तो इतनी ले जा चुका है,चुकाए तो उसके बाल तक बिक जाए। गृहस्थी की सरकार घाटे में चल रही है,ऐसा कहकर आटा तो आए दिन लेने आ जाता है। डाटा की तो पूछिए मत। हॉटस्‍पॉट ऑन करने के लिए सुबह चार बजे से ही  मिस कॉल पर मिस कॉल देने लगता हैं।
आदत से इतना लाचार हैं कि आचार तक नहीं छोड़ता है और विचार-विमर्श इस तरह करता है,जैसे कि बहुत बड़ा विचारक हो। जबकि विचारक कम प्रचारक ज्यादा है। क्योंकि वह गोपनीय बात का भी प्रचार-प्रसार करे बिना नहीं रहता है। सच पूछिए तो,मेरे तो किसी भी काम के लायक नहीं हैफिर भी मांगने पर उसे अपनी बाइक देनी पड़ती है। नहीं दूं तो भय रहता है,पड़ोसी धर्म संकट में नहीं पड़ जाए। क्योंकि मैं धर्म के मामले में बहुत धार्मिक हूँ। वह इसी का फायदा उठाता है। जामन के लिए भी आधी रात में आकर दरवाजा खटखटा देता है। गहरी नींद में सोया हो तो भी जगा देता है। वक्त की नजाकत देखकर भाषा शैली का प्रयोग करता है। डिस्टर्ब करके कहता है कि डिस्टर्ब के लिए क्षमा चाहता हूँ। दरअसल क्या है कि जावन को बिल्ली चाट गई। भले ही रखना भूल ही गया हो,लेकिन कहेगा हमेशा यही कि बिल्ली चाट गई।

इतना चतुर चालाक है कि लोमड़ी तक को अपनी गिरफ्त में कर लेता है। मुझे ही देख लो! मेरी उँगली पकड़ता-पकड़ता पहुँचा पकड़ लिया है। मुझे डर है कि गर्दन नहीं पकड़ ले। किसी दिन गर्दन पकड़ ली तो क्या होगाजो माँगेगा वही देना पड़ेगा। नहीं दिया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा। लेकिन मेरी पत्नी को पूरा विश्वास है,वह विश्वासघात तो कभी नहीं करेगा। उसे क्या मालूम नहीं,तुमने कभी उसको आलू के लिए भी मना नहीं किया है। ईमेल बाद में किया है,पहले उसे तेल दिया है। तुम्हें मारकर वह अपनी उधार की दुकान क्यों बंद करेगाबल्कि वह तो तुम्हारी लंबी उम्र की दुआ करता होगा। वह और दुआ। कल ही मना कर दूं तो स्वाहा कर देगा।
मेरा यह पड़ोसी आलू प्याज ही नहींबल्कि ब्याज के नाम पर रुपया तक ले जाता है। लेकिन जब देने आता है तो मूल रकम तो अदा कर देता हैपर ब्याज जीम जाता है। मांगता हूँ तो बहानेबाजी कर जाता है। यह बहानेबाजी में भी अव्वल है। ऐसा बहाना बनाता है कि यकीन नहीं हो तो भी यकीन करना पड़ता है। कभी खुद तो कभी बीबी-बच्चों को बीमार कर देता है। खाँसी जुकाम को भी गंभीर बीमारी का रुप देकर घर बैठे को आईसीयू में भर्ती कर देता है। झूठ की पराकाष्ठा तक को लाँघने में कतई नहीं झिझकता है। आँख मूंदकर छलांग लगा देता है। क्योंकि यह  झूठपाखंड जैसी कलाओं में कलाकार आदमी है। सच कहूं तो यह पड़ोसी नहीं एक बला हैजो कि टालने से भी नहीं टलती है। 
मेरे इस पड़ोसी की एक अहम बात तो बताना भूल ही गया। इसका एक आदर्श वाक्य हैं,जिसका उच्चारण करना कभी नहीं भूलता है। जब भी कुछ लेकर जाएगा तो अपना आदर्श वाक्य 'पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता हैअवश्य बोलकर जाएगा। लेकिन मेरा यह पड़ोसी मेरे तो आज तक किसी काम नहीं आया है। सिर्फ नाम का पड़ोसी है। मेरा तो छोटा सा भी काम हो तो आनाकानी कर जाता है। खुद का काम हो तो थूक के आँसू लगाकर करवा लेता है। इससे कैसे पीछा छुड़ाऊ। समझ में ही नहीं आता है। किसी से राय-मशवरा करता हूँ तो वो भी वहीं सलाह देते हैं,जो कि उसके आदर्श वाक्य में निहित है। बोलते हैं कि आप भी कैसी बात करते होपड़ोसी के प्रीति मन में जो भ्रम है,उसे निकाल दो। एक पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है। यह सुनकर मैं निरुत्तर हो जाता हूँ।

7 Jun 2019

गरमी के आगे सब फेल

इन दिनों गरमी जमकर कहर बरसा रही है। टेंपरेचर अपने पुराने रिकॉर्ड तोड़ने पर तुला हुआ है। धूप सुबह से ही चुभन भरी धूम मचाने लग रही है। लू मेघ की छांव में भी पूरे वेग से चल रही है। पेड़-पौधे झुलसकर औंधे मुंह हुए पड़े हैं। इनकी छांव में पांव रखने का भी मन नहीं कर रहा है।  टहनियां इतनी गरम हो रही हैं कि बेजुबान पक्षी उन पर बैठ नहीं पा रहे हैं। श्वानों की जीभ अंदर नहीं जा रही है। बाहर ही लटकी हुई लार टपका रही है। इस वजह से वो भौंक भी नहीं पा रहे हैं। हांफ रहे हैं। इनकी हांफ का चोर फायदा उठा रहे हैं। श्वान बाहुल्य क्षेत्र में भी चोरी करते हुए नहीं डर रहे हैं।

कल तक जोर-जोर से चिल्लाने वाले भी चिलचिलाती धूप के आगे चुप बैठे हुए हैं। उन्हें पता है कि चिलाएंगे तो गला सूखेगा। गला सूखेगा तो प्यास लगेगी। प्यास बुझाने के लिए,मटकेेेे तक जाना पड़ेगा। मटका है कि खाली पड़ा हैैं। फ्रिज में बोतल रखी है। लेकिन बिजली मनचली हो रही है। कब आ जाए और कब चल जाए कोई पता नहीं। इसलिए कोल्ड ड्रिंक की ढाई लीटर की बोतल पर बोरी की टांट बांधकर,उसमें पानी भरकर अपनेे सिरहाने रखे हुए हैं। एक घंटे में एक घूंट पीकर फिर वापस रख देते हैं। ताकि बोतल खाली नहीं हो जाए।
लेकिन पक्षियों को कोसों दूर उड़ान भरने के बावजूद भी दो बूंद पीने को पानी नहीं मिल रहा हैं। सूखी पड़ी टोंटियों में अपनी चोंच मार-मारकर चेक कर रहे हैं। इस चक्कर में कईयों की तो चोंच के मोच आ गई है। फिर भी हौसला बुलंद है। हतोत्साहित न होकर, अपनी प्यास बुझाने के लिए
यहां से वहां उड़ान भर रहे हैं। एक हम हैं,जो गरमी से जरा सा भी मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं।गरमी को देखते ही सिर पर पांव रखकर सीलिंग फैन के नीचे आराम फरमाने में मशगूल हैं। लेकिन इन दिनों गरमी के आगे सीलिंग फैन भी फेल है। कूलर भी गूलर की हवा खानेेे निकल गया है और पीछे गर्म हवा छोड़ गया है।

5 Jun 2019

फेसबुकिया प्रकृति प्रेमी

उसे प्रकृति से प्रेम है। यह प्रदर्शित करने के लिए,रोज फेसबुक पर लाइव आता है। प्रकृति के बजाय अपने बारे में ज्यादा बताता है। मैंने यह किया। वह किया। एक ही बात को दस बार दोहराता है। फिर भी यह समझ में नहीं आता है कि आखिरकार कहना क्या चाहता है। मगर उसके हर वक्तव्य का एक ही तात्पर्य होता है कि मुझे प्रकृति से प्रेम है।

प्रकृति है कि उसे लाइक तक नहीं करती। प्रकृति का कहना है कि उसने मेरे लिए किया ही क्या है,जो कि उसे अपने लायक समझू। वह तो नालायक है। उसने जिंदगी में कभी एक पौधा तक लगाया नहीं और फेसबुक पर पूरा का पूरा उद्यान दिखा देता है। यह देखिए, मेरे द्वारा लगाया गए उद्यान का मनोरम दृश्य। दूसरों को पेड़-पौधे नहीं काटने की नसीहत देता है और खुद लकड़ियों का व्यापार करता है। फेसबुक पर जल व्यर्थ मत बवाइए का हैशटैग लगाकर जल बचाने की पहल करता है। जबकि खुद ट्यूबवेल चलाकर स्नान करता है। ऐसे प्रेमी से प्रेम करने से अच्छा है कि चारों ओर फैल रहे पर्यावरण प्रदूषण को पीकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लूं। लेकिन मुझे अपने लिए नहीं,इस सृष्टि के लिए जीना है। क्योंकि सृष्टि है तो मैं हूँ और मैं हूँ तो सृष्टि है। इसके जैसे प्रेमी तो न जाने कितने आए और कितने गए। ऐसी प्रवृत्ति के लोग सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए ही फेसबुक पर लाइव आते हैं। रियल लाइफ में कभी लाइव नहीं आते हैं।
यह प्रेमी को थोड़ी पता है। प्रकृति उसे पसंद नहीं करती है। पता होता तो अब से पहले सोशल मीडिया पर बवाल खड़ा कर देता। मैं प्रकृति को अपने आप से भी ज्यादा चाहता हूँ। फिर भी इग्नोर कर रही है। जबकि मैंने प्रकृति के लिए क्या नहीं किया। धरना दिया। प्रदर्शन किया। ज्ञापन सौंपा। रैलियां निकाली। स्कूल व कॉलेजों में सेमिनार आयोजित किए। अखबारों में प्रेस विज्ञप्ति देकर बिगड़ते पर्यावरण पर चिंता व्यक्त की। अखबार में छपी खबर को फेसबुक पर चिपकाकर आमजन को जागरूक किया। नहीं मैं सम्मान का भूखा हूँ और नहीं ही पुरस्कार का प्यासा हूँ। भारत का वासी हूँ। प्रकृति का ही सच्चा साथी हूँ। कुछ इस तरह से फेसबुक पर लाइव आकर बकवाद करता।

पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर तो प्रकृति प्रेमी अपना प्रेम उसी तरह इजहार करता है। जिस तरह एक प्रेमी वैलेंटाइन डे पर करता है। प्रकृति के बजाय फेसबुक लाइव के संग बिताए सुनहरे पलों को याद करते हुए लोगों से फरियाद करता है। प्रकृति संकट में हैं। समय रहते नहीं बचाया गया तो बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। नदियों का गला सूख गया है। कुआँ बावड़ी तो कब की ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुकी हैं। पहाड़ तिल-तिलकर अपनी जान गवा रहे हैं। जल रसातल में डूबकर मरने को तैयार बैठा है। यह फरियाद भी इस तरह से करता है,जैसे कि देश का प्रधानमंत्री देशवासियों को संबोधित कर रहा हो। इस दिन प्रकृति के संग जीने मरने की झूठी कसमें तो इस तरह से खाता है,जैसे कि गाजर मूली खा रहा हो। मगर प्रकृति इसकी रग-रग से वाकिफ है।
भले ही वह खुद के भले के लिए फेसबुक पर लाइव आता हो। मगर हम तो पर्यावरण दिवस के सिवाय प्रकृति के बारे में कभी सोचते भी नहीं है। उससे सुख दुख भी नहीं पूछते हैं। किस हालात में जी रही है। जबकि प्रकृति हमारा पूरा ख्याल रखती है। तो क्यों नहीं  इस पर्यावरण दिवस पर प्रण ले कि हम जब तक जिएंगे, तब तक प्रकृति के खरोंच भी नहीं आने देंगे।